दूर देश से आई चिड़िया 
बसेरे की तलाश में
 पर कठिन मार्ग में भटकी 
समूह से अलग हो कर |
सब से बिछड़ कर 
थी उदास पाकर अकेला खुद को 
इस अजनबी दलदल में 
अब सब  की याद सता  रही थी |
ऊपर आसमान विशाल 
उड़ने की ताकत न रही 
 थक गई  थी चाहती थी विश्राम |
नीचे कीचड़ दलदल में 
न जाने हो कितनी गहराई उसमें 
दोनो ओर जा नहीं सकती 
अपनी जान बचा नहीं सकती |
फँस गई है संकट में 
किसे चुने व्योम को या दलदल को 
एक ओर कुआ  दूसरी ओर है खाई  |
एक वृक्ष के सहारे
 कब तक रहेगी वहां 
यूँ भी है अकेली 
कैसे बिताएगी जीवन यहाँ |
जब तक रही झुण्ड में 
तब भी थी नाराज 
ज़रा ज़रा सी बात पर 
रूठ जाती थी क्रुद्ध हो जाती ही |
 ईश्वर ने देखा है  
 असंतुलित  व्यवहार उसका 
सुधरने के लिए ही  ऐसी 
नसीहत दी है उसको |
अपनी  दुनिया से हुई दूर अब 
 पछ्ता कर अपने में सुधार
ला रही है 
 पर बहुत देर  हो चुकी है  अपनों से दूर हुए  
 है उसका अंत यहीं अब तो  | 
आशा 
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शास्त्री जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंयह कर्मों का फल है जिसे सभीको भोगना ही पड़ता है ! सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
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