है वह आइना तेरा
हर अक्स का हिसाब रखता है
तू चाहे याद रखे न रखे
उसमें जीवंत बना रहता है
बिना उसकी अनुमति लिए
जब बाहर झाँकता है
चाहे कोई भी मुखौटा लगा ले
बेजान नजर आता है
यही तो है कमाल उसका
हर भाव की एक एक लकीर
उसमें उभर कर आती है
तू चाहे या न चाहे
मन की हर बात वहाँ पर
तस्वीर सी
छप जाती है
चाहे तू लाख छिपाए
तेरे मन के भावों की
परत परत खुल जाती है
दोनों हो अनुपूरक
एक दूसरे के बिना अधूरे
है वह आइना तेरे मन का
यह तू क्यूँ भूला |
आशा
आशा
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 27 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार यशोदा जी |
हटाएंबहुत सही।
जवाब देंहटाएंआइना हमेशा सच बोलता है।
धन्यवाद शास्त्री जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंआईना दिखाती है आपकी यह रचना । सुंदर प्रस्तुति आदरणीया ।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंपुरुषोत्तम जी टिप्पणी के लिए धन्यवाद |
मन का आइना ... जिस से कोई मुखौटा नहीं बच सकता ... उम्दा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुबोध जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंआईना , जितना कमाल आईना खुद है उतना ही कमाल आपने उसका अक्स उभार कर रख दिया अपनी इन पंक्तियों में। मैं आपके ब्लॉग का 300वां अनुसरक बन कर जा रहा हूँ अब नियमत आता रहूंगा
जवाब देंहटाएंमुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है की आप मेरे ब्लॉग पर आए |उत्साह वर्धन के लिए धन्यवाद |टिप्पणी बहुत अच्छी लगी |
हटाएंमौन रह कर सब सच कहता है आइना ...
जवाब देंहटाएंयही तो खासियत है उसकी ...
हर दिलकश चेहरा मुझे देखता जरूर है,
जवाब देंहटाएंदिवार पर लटका आइना जो हूँ मैं !