हो तुम महनतकश कृषक
तुम अथक परिश्रम करते
कितनों की भूख मिटाने के लिए
दिन को दिन नहीं समझते |
रात को थके हारे जब घर को लौटते
जो मिलता उसी से अपना पेट भर
निश्चिन्त हो रात की नींद पूरी करते
दूसरे दिन की फिर भी चिंता रहती |
प्रातः काल उठते ही
अपने खेत की ओर रुख करते
दिन रात की मेहनत रंग लाती
जब खेती खेतों में लहलहाती |
तुम्हारा यही परीश्रम यही समर्पण
तुम्हें बनाता विशिष्ट सबसे अलग
हो तुम सबसे भिन्न हमारे अन्न दाता|
आशा
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 03 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंसूचना हेतु आभार यशोदा जी |
यथार्थवादी रचना
जवाब देंहटाएंThanks for the comment smita
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंमेरी रचना पर टिप्पणी के लिए धन्यवाद सधु जी |
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंमेरी पोस्ट की सूचना के लिए आभार मीना जी |
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंधरती के भगवान को नमनष
Thanks for the comment
हटाएंसुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंबहुत सुन्दर समसामयिक सृजन।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment d
हटाएंवाह ! बहुत सुन्दर प्रस्तुति ! सार्थक सृजन !
जवाब देंहटाएंThanks for the comment 9
जवाब देंहटाएंसुंदर
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