03 दिसंबर, 2020

कृषक


हो तुम महनतकश कृषक

 तुम अथक परिश्रम करते

कितनों की भूख मिटाने के लिए

दिन को दिन नहीं समझते |

रात को थके हारे जब घर को लौटते

जो मिलता उसी से अपना पेट भर

निश्चिन्त हो रात की नींद पूरी करते

दूसरे दिन की  फिर भी चिंता रहती |

प्रातः काल उठते ही

अपने खेत की ओर रुख करते

दिन रात की  मेहनत रंग लाती 

जब खेती खेतों में लहलहाती |

तुम्हारा यही परीश्रम यही  समर्पण

 तुम्हें बनाता विशिष्ट सबसे अलग

हो तुम  सबसे भिन्न हमारे अन्न दाता|

आशा

 

20 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 03 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. उत्तर
    1. सुप्रभात
      मेरी रचना पर टिप्पणी के लिए धन्यवाद सधु जी |

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  3. सुप्रभात
    मेरी पोस्ट की सूचना के लिए आभार मीना जी |

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  4. बहुत सुन्दर समसामयिक सृजन।

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  5. वाह ! बहुत सुन्दर प्रस्तुति ! सार्थक सृजन !

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