कान्हां तुम न आए मिलने
जमुना किनारे
वट वृक्ष के नीचे
रोज राह देखी तुम्हारी
पर तुम न आए |
इतने कठोर कैसे हुए
यह रंग बदला कैसे
तुमने वादा किया था
आने का यहीं पर |
आए पर छिपे रहे करील की
झाड़ियों के पीछे
है यह कैसा न्याय प्रभू
तुमने बिसराया मुझे |
कहाँ तो कहा कहते थे
जी न पाओगे मुझसे बिछुड़ कर
पर मैंने तुम्हें पहचान लिया है
तुम रह नहीं सकते
बांस की मुरली के बिना |
तुमने मुझे भरमाया
अपनी शक्ति मुझे बताया
पर यही गलत फहमी रही
मैंने तुम्हारी बात को सच माना |
राह देखी दिन रात तुम्हारी
पर तुम न आए
तुम तो मथुरा के हो गए
फिर लौट न पाए दोबारा |
मेरा विरही मन
तुम्हारी राह देखता रहा
नयन धुधले हुए हैं
वाट जोहते जोहते |
श्याम तुम कब आओगे
मेरी मनोकामना पूर्ण करोगे
तुम भूले हो अपना वादा
पर मैं नहीं भूली अब तक |
आशा
बहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 23 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमेरा विरही मन
जवाब देंहटाएंतुम्हारी राह देखता रहा
नयन धुधले हुए हैं
वाट जोहते जोहते |---- बहुत सुन्दर
सुप्रभात
हटाएंसुन्दर कमेन्ट के लिए धन्यवाद संदीप जी |
राधा की शिकायत कृष्ण तक पहुँचा दी इस रचना के माध्यम से । सुंदर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद संगीता जी टिप्पणी के लिए |
सुंदर और मीठे उपालम्भ।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंटिप्पणी के लिए धन्यवाद सर |
बहुत ही सुन्दर व दिव्य भावों से ओतप्रोत मुग्ध करती कविता - - साधुवाद सह।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शांतनु जी टिप्पणी के लिए |
गोपियों की विरह वेदना की सार्थक अभिव्यक्ति ! सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएं