कबूतर तुम्हारा नियमित आना
समय से दाना चुगना
वख्त की अहमियत
समझना
यही है मूल मन्त्र जीवन पथ पर
अग्रसर होने का |
रोज निगाहें
टिकी रहती हैं
छत पर समूह में एकत्र हो तुम
कब आओगे दाना चुगने
ध्यान वहीं रहता है
कहीं भूखे तो न रह जाओगे
|
जब भूख तुम्हारी
शांत होती है
मुझे आत्म संतुष्टि
मिलती है
जब तृप्त हो व्योम
में उड़ जाते हो
मैं सोचती हूँ कितनी शान्ति
होती होगी तुम्हारे मन में |
तुमसे मैंने भी
शिक्षा ली है
यह जीवन है सद्कार्यों के लिए
परोपकार का महत्व समझा है
अपने लिए जीना ही पर्याप्त नहीं |
आशा
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 08 फरवरी को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंआभार सूचना के लिए यशोदा जी |
प्रतीक के माध्यम से व्यक्त सुन्द रचना।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद शास्त्री जी टिप्पणी के लिए |
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (9-2-21) को "मिला कनिष्ठा अंगुली, होते हैं प्रस्ताव"(चर्चा अंक- 3972) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
सुप्रभात
हटाएंआभार कामिनी जी मेरी रचना की सूचना के लिए |
मैं सोचती हूँ कितनी शान्ति
जवाब देंहटाएंहोती होगी तुम्हारे मन में |----अच्छी पंक्तियां...। पूरी रचना गहरी है।
धन्यवाद संदीप जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंयही सबसे विशेष बात है कि अपने आस पास घटित होने वाली हर गतिविधि से हम कुछ न कुछ सीख सकते हैं ! पंछियों का प्रतिदिन निश्चित समय पर दाना चुगने आना भी हमें अनुशासन की शिक्षा दे जाता है ! बहुत सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना
हटाएंटिप्पणी पसंद आई |
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति, आदरणीया आकांशा जी किसी ने कहा भी है-परिंदो में फिकरा परस्ती क्यों नहीं होती कभी मंदिर पे जा बैठे कभी मस्जिद पे जा बैठे भारतीय साहित्य एवं संस्कृति
जवाब देंहटाएंसंजय जी मेरा नाम आशा है आकांशा नहीं |आकांक्षा तो ब्लॉग का नाम है |
हटाएंधन्यवाद संजय जी टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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