Amrit kalash
Sunday, December 27, 2020
ओस की नन्हीं बूँदें
ओस की नन्हीं बूँदें
हरी दूब पर मचल रहीं
धूप से उन्हें बचालो
कह कर पैर पटक रहीं |
देखती नभ की ओर हो भयाक्रांत
फिर बहादुरी का दिखावा कर
कहतीं उन्हें भय नहीं किसी का
रश्मियाँ उनका क्या कर लेंगी |
दूसरे ही क्षण वाष्प बन
अंतर्ध्यान होती दिखाई देतीं
वे छिप जातीं दुर्वा की गोद में
मुंह चिढाती देखो हम बच गए |
पर यह क्षणिक प्रसन्नता
अधिक समय टिक नहीं पाती
आदित्य की रश्मियों के वार से
उन्हें बचा नहीं पाती |
आशा
सुन्दर
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (10-02-2021) को "बढ़ो प्रणय की राह" (चर्चा अंक- 3973) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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Thanks for the information
हटाएंअच्छी कविता...।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 09 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना ! जीवन भले ही क्षणिक हो सदैव आनंद और परमार्थ से परिपूर्ण होना चाहिये ! ओस की नन्ही बूँदें हमें यही शिक्षा देती हैं !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
हटाएंसुन्दर भावपूर्ण रचना.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शांतनु जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंसुंदर भावपूर्ण रचना...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद विकास जी टिप्पणी के लिए |
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