ह्रदय के हारे हार है
मन के जीते जीत
कोई उससे न करे प्रीत
जिसकी नहीं प्रीत किसी से
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बहुत देखा सुना समझा
दिया वास्ता जब उसने
कोई अर्थ नहीं निकल पाया
थी सच्चाई दूर बहुत |
विश्वास उठ गया उस पर से
अब लगती वह भिन्न सब से
है मेरा नजरिया या बहम मन का
सोच नहीं पाया अभी तक |
यदि सोच लिया होता
जजबातों में न बहता नदिया सा
पैनी दृष्टि रखता
खुद को न बहकने देता |
पहचान
यदि गैरों की
मन में बस जाती
फिर कोई भूल न होती
अपनों में और गैरों की परख
में |
अपने तो अपने ही हैं
कोई सानी नहीं बाह्य तत्वों से
करते हैं जितना दुलार दिल
से
वही है सच्चा कोई दिखावा
नहीं |
आशा
अपने तो अपने होते हैं । सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |