जाने कितने रावण
गली गली में घूंम रहे
इनका कोई अंत नहीं
हुआ अब तक |
सडकों पर घूमने वाले
रावण में कोई सुधार नहीं
हुआ अब तक
सब को हैरानी होती है |
हर वर्ष जलाया जाता उस को
फिर से जी उठता है
शायद गया श्राद्ध
न किया गया हो उसका |
हर बार जी उठता है
कलियुग का आभास कराता है
कहीं शांति नहीं हो पाती यहाँ वहां
और भ्रष्टाचार की कमीं नहीं |
हम भी उसी गली में रहते
पर दूरी बनाए रखते
किसी से नहीं मिलते जुलते
किसी का अन्धानुकरण नहीं करते |
अपने आप में व्यस्त रहते
जाने कब छुटकारा मिलेगा
इस कलियुग के प्रपंचों से
मुक्ति होगी या नहीं
किसको पता |
आशा सक्सेना
सार्थक रचना ! बहुत बढ़िया !
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