09 जनवरी, 2010
ख़ुली किताब का पन्ना
चहरे पर भाव सहज आते ,
नहीं किसी को बहकाते ,
न कोई बात छिपी उससे ,
निश्छल मन का दर्पण है वह ,
सूर्य किरण की आभा सा ,
है मुखड़ा उसका ,
ख़ुली किताब के पन्ने सा |
सुरमई आँखों की कोरों में ,
न कोई अवसाद छुपा है ,
न ही विशद आंसुओं की लड़ी है ,
केवल हँसी भरी है ,
उन कजरारी अँखियों में ,
मन चंचल करती अदाओं में ।
है अंकित एक-एक शब्द ,
मन की किताब के पन्नों में ,
उनको समेटा सहेजा है ,
हर साँस से हर शब्द में ,
वही चेहरा दीखता है ,
खुली किताब के पन्ने सा
यदि पढ़ने वाली आँख न हो ,
कोई पन्ना खुला रहा तो क्या ,
मन ने क्या सोचा क्या चाहा ,
इसका हिसाब रखा किसने ,
इस जीवन की आपाधापी में ,
पढ़ने का समय मिला किसको ,
पढ़ लिया होता यदि इस पन्ने को ,
खिल उठता गुलाब सा मन उसका ,
है मन उसका ख़ुली किताब के पन्ने सा |
आशा
07 जनवरी, 2010
बिदाई की बेला में
कुछ मीठी कुछ खट्टी यादें
बार बार मन को महका दें
उन्हें भूल न जाना बहना
आज बिदाई की बेला में
मुझे यही है कहना |
झरने सी तुम कल कल बहना
कठिन डगर पर बढ़ती रहना
बंध स्नेह का तोड़ न देना
है यही तुम्हारा गहना
मुझे यही है कहना |
प्रीत रीत को भूल न जाना
घर आँगन को तुम महकाना
सदा विहँसती रहना
हमें भूल न जाना बहना |
मंगलमय हो पंथ तुम्हारा
सदाचार हो गहना
सुन्दर तनमन देख तुम्हारा
कुछ कहा जाए ना बहना
मुझे यही है कहना |
आशा
06 जनवरी, 2010
अंतिम घड़ी
गीत गाती है
गुनगुनाती है
बातों बातों में झूम जाती है
फिर क्यूँ उन लम्हों को
ज़िंदगी झुठलाती है
जब अंतिम घड़ी आती है |
बचपन का कलरव
यौवन का मधुरव
बन जाता है रौरव
मन वीणा टूट जाती है
जब अंतिम घड़ी आती है |
आशा
गुनगुनाती है
बातों बातों में झूम जाती है
फिर क्यूँ उन लम्हों को
ज़िंदगी झुठलाती है
जब अंतिम घड़ी आती है |
बचपन का कलरव
यौवन का मधुरव
बन जाता है रौरव
मन वीणा टूट जाती है
जब अंतिम घड़ी आती है |
आशा
05 जनवरी, 2010
मै क्या लिखूँ
मन चाहता है कुछ नया लिखूँ
क्या लिखूँ ,कैसे लिखूँ ,किस पर लिखूँ
हैं प्रश्न अनेक पर उत्तर एक
कि प्रयत्न करूँ |
यत्न कुछ ऐसा हो कि
बन जाए एक कविता
कहानी हो ऐसी कि
मै बन जाऊँ एक जरिया
सयानी बनूँ
नया ताना बाना बुनूँ
कुछ पर अपना अधिकार चुनूँ
फिर ढालूँ उसे अपने शब्दों में
कृतियों की झंकार सुनूँ
मन मेरा चाहता है
कुछ नया लिखूँ|
नया नहीं कुछ खोज सकी
जो है उस पर ही अड़ी रही
आसमान के रंगों में ही
मेरी कल्पना सजग रही |
स्याह रंग जब मन पर छाया
बहुत उदास दुखों का साया सा
चेहरा नजर आया
मन मेरा हुआ उदास
सोचा उस पर ही लिखूँ
जब अंधकार से घिरा वितान
दिखे विनाशक दृश्य अनाम
अनजाने भय का हुआ अवसान
इससे भी पूरा ऩहीं हुआ अरमान
क्या लिखूँ , कैसे लिखूँ
यही सोच रहा अविराम |
सुबह की सुनहरी रूपल झलक
ले चली मुझे कहीं दूर तक
एक प्यारा सा चेहरा पास आया
थामा हाथ बना साया
उसने ही मन को उकसाया
कुछ नया लिखूँ कुछ नया करूँ
दुनिया रंग रंगीली है
इसमें रमना भी ज़रुरी है
क्या इस पर भी कुछ लिखूँ !
मैं सोचती हूँ कुछ नया लिखूँ |
आशा
02 जनवरी, 2010
आस्था का भँवर
आस्था के भँवर में फँस कर
हर इन्सान घूमता है
घूमता ही रह जाता है |
निकलना भी चाहे अगर
नहीं मिलती है कोई राह
वह बस घूमता है
घूमता ही रह जाता है |
आस्था यदि सत्य में हो
तो कुछ समझ आता है
पर आडम्बर से युक्त
व्यवस्था समाज की
भुला देती है भ्रम सारे |
कोई भी यत्न नहीं तोड़ पाते इसे
सामाजिक आस्था के भँवर में
वह घूमता है
घूमता ही रह जाता है |
आस्था यदि धर्म में हों
तो भी कुछ बात है
पर धार्मिक ढकोसलों में
उलझी आस्था
केवल संताप है ,विश्वास नहीं
इसी लिए घूमते-घूमते ही
इस भँवर से
आस्था भी उठना चाहती है
निकलना चाहती है
इस धार्मिक उन्माद से |
पर मनों बोझ सह कर भी
होता नहीं आसान निकलना
आस्था के भँवर जाल से |
आस्था यदि मनुष्य की मनुष्य में हो
तब भी सोच होता है
पर जब तोड़ देता है मनुष्य
मनुष्य में उत्पन्न आस्था का भ्रम
तब घुटता है दम
आस्था का भँवर
लील जाता है इन्सान को |
बस वह डूबता है उतराता है
उलझ कर रह जाता है
आस्था के भँवर जाल में |
आशा
हर इन्सान घूमता है
घूमता ही रह जाता है |
निकलना भी चाहे अगर
नहीं मिलती है कोई राह
वह बस घूमता है
घूमता ही रह जाता है |
आस्था यदि सत्य में हो
तो कुछ समझ आता है
पर आडम्बर से युक्त
व्यवस्था समाज की
भुला देती है भ्रम सारे |
कोई भी यत्न नहीं तोड़ पाते इसे
सामाजिक आस्था के भँवर में
वह घूमता है
घूमता ही रह जाता है |
आस्था यदि धर्म में हों
तो भी कुछ बात है
पर धार्मिक ढकोसलों में
उलझी आस्था
केवल संताप है ,विश्वास नहीं
इसी लिए घूमते-घूमते ही
इस भँवर से
आस्था भी उठना चाहती है
निकलना चाहती है
इस धार्मिक उन्माद से |
पर मनों बोझ सह कर भी
होता नहीं आसान निकलना
आस्था के भँवर जाल से |
आस्था यदि मनुष्य की मनुष्य में हो
तब भी सोच होता है
पर जब तोड़ देता है मनुष्य
मनुष्य में उत्पन्न आस्था का भ्रम
तब घुटता है दम
आस्था का भँवर
लील जाता है इन्सान को |
बस वह डूबता है उतराता है
उलझ कर रह जाता है
आस्था के भँवर जाल में |
आशा
01 जनवरी, 2010
नूतन अभिनंदन
नूतन हो नव वर्ष
मैं सब का अभिनंदन करने आया हूँ
आज पा सुअवसर
तुम्हारा नेह माँगने आया हूँ |
अधिक समय तक रहा सुप्त
छिपा कर प्यार रहा उन्मुक्त
स्वयं को जान, अपनों को पहचान
नेह निमंत्रण देने आया हूँ
हे सुभगे मैं तुम्हें मनाने आया हूँ |
मुझसे रूठी सारी खुशियाँ
जबसे तुमसे रहा दूर
इस अनजानी दूरी को
मैं स्वयं मिटाने आया हूँ
नूतन वर्ष की इस बेला में
मैं प्यार बांटने आया हूँ |
अपनी कमियों को पहचान
सपनों में भी उनसे रहा दूर
अपनों ने मुझे भुलाया
मन में मेरे शूल चुभाया
फासला और बढ़ाया
पर मैं इस अंतर को
सह नहीं पाया
रह न सका दूर सब से
चाहता दूर मतभेद करना
नूतन अभिनंदन हे सुभगे
मैं तुम्हें मनाने आया हूँ |
आज सुअवसर देख
तुम्हारा नेह पाने आया हूँ |
आशा
28 दिसंबर, 2009
मेरी पहचान
जब मैं छोटी बेटी थी मनसा था मेरा नाम
बड़ी शरारत करती थी पर थी मैं घर की शान |
वैसे तो माँ से डरती थी ,
माँ के आँख दिखाते ही मैं सहमी-सहमी रहती थी ,
मेरी आँखें ही मन का दर्पण होती थीं,
व मन की बातें कहती थीं
एक दिन की बताऊँ बात ,
जब मैं गई माँ के साथ ,
सभी अजनबी चेहरे थे ,
हिल मिल गई सभी के साथ ,
माँ ने पकड़ी मेरी चुटिया
यही मेरी है प्यारी बिटिया ,
मौसी ने प्यार जता पूछा ,
"इतने दिन कहाँ रहीं बिटिया? "
तब यही विचार मन में आया ,
क्या मेरा नाम नही भाया ,
जो मनसा से हुई आज बिटिया
बस मेरी बनी यही पहिचान ,
'माँ की बिटिया' 'माँ की बिटिया' |
जब मै थोड़ी बड़ी हुई ,
पढ़ने की लगन लगी मुझको ,
मैंने बोला, "मेरे पापा मुझको शाला में जाना है !"
शाला में सबकी प्यारी थी ,
सर की बड़ी दुलारी थी ,
एक दिन सब पूंछ रहे थे ,
"कक्षा में कौन प्रथम आया ,
हॉकी में किसका हुआ चयन ?"
शिक्षक ने थामा मेरा हाथ ,
परिचय करवाया मेरे साथ ,
कहा, "यही है मेरी बेटी ,
इसने मेरा नाम बढ़ाया !"
तब बनी मेरी वही पहचान ,
शिक्षक जी की प्यारी शान
बस मेरी पहचान यही थी ,
मनसा से बनी गुरु की शान |
जिस दिन पहुँची मैं ससुराल ,
घर में आया फिर भूचाल ,
सब के दिल की रानी थी ,
फिर भी नहीं अनजानी थी ,
यहाँ मेरी थी क्या पहचान ,
केवल थी मै घर की जान ,
अपनी यहाँ पहचान बनाने को ,
अपना मन समझाने को ,
किये अनेक उपाय ,
पर ना तो कोई काम आया ,
न बनी पहचान ,
मै केवल उनकी अपनी ही ,
उनकी ही पत्नी बनी रही ,
बस मेरी बनी यही पहचान ,
श्रीमती हैं घर की शान ,
अब मैं भूली अपना नाम ,
माँ की बिटिया ,गुरु की शान ,
उनकी अपनी प्यारी पत्नी ,
अब तो बस इतनी ही है ,
मेरी अपनी यह पहचान ,
बनी मेरी अब यही पहचान |
आशा
बड़ी शरारत करती थी पर थी मैं घर की शान |
वैसे तो माँ से डरती थी ,
माँ के आँख दिखाते ही मैं सहमी-सहमी रहती थी ,
मेरी आँखें ही मन का दर्पण होती थीं,
व मन की बातें कहती थीं
एक दिन की बताऊँ बात ,
जब मैं गई माँ के साथ ,
सभी अजनबी चेहरे थे ,
हिल मिल गई सभी के साथ ,
माँ ने पकड़ी मेरी चुटिया
यही मेरी है प्यारी बिटिया ,
मौसी ने प्यार जता पूछा ,
"इतने दिन कहाँ रहीं बिटिया? "
तब यही विचार मन में आया ,
क्या मेरा नाम नही भाया ,
जो मनसा से हुई आज बिटिया
बस मेरी बनी यही पहिचान ,
'माँ की बिटिया' 'माँ की बिटिया' |
जब मै थोड़ी बड़ी हुई ,
पढ़ने की लगन लगी मुझको ,
मैंने बोला, "मेरे पापा मुझको शाला में जाना है !"
शाला में सबकी प्यारी थी ,
सर की बड़ी दुलारी थी ,
एक दिन सब पूंछ रहे थे ,
"कक्षा में कौन प्रथम आया ,
हॉकी में किसका हुआ चयन ?"
शिक्षक ने थामा मेरा हाथ ,
परिचय करवाया मेरे साथ ,
कहा, "यही है मेरी बेटी ,
इसने मेरा नाम बढ़ाया !"
तब बनी मेरी वही पहचान ,
शिक्षक जी की प्यारी शान
बस मेरी पहचान यही थी ,
मनसा से बनी गुरु की शान |
जिस दिन पहुँची मैं ससुराल ,
घर में आया फिर भूचाल ,
सब के दिल की रानी थी ,
फिर भी नहीं अनजानी थी ,
यहाँ मेरी थी क्या पहचान ,
केवल थी मै घर की जान ,
अपनी यहाँ पहचान बनाने को ,
अपना मन समझाने को ,
किये अनेक उपाय ,
पर ना तो कोई काम आया ,
न बनी पहचान ,
मै केवल उनकी अपनी ही ,
उनकी ही पत्नी बनी रही ,
बस मेरी बनी यही पहचान ,
श्रीमती हैं घर की शान ,
अब मैं भूली अपना नाम ,
माँ की बिटिया ,गुरु की शान ,
उनकी अपनी प्यारी पत्नी ,
अब तो बस इतनी ही है ,
मेरी अपनी यह पहचान ,
बनी मेरी अब यही पहचान |
आशा
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