घुली मिली जल में चीनी सी 
सिमटी अपने घर में 
गमले की तुलसी सी रही 
शोभा घर आँगन की |
ना कभी पीछे मुड़ देखा 
ना ही भविष्य की चिंता की 
व्यस्तता का बाना ओढ़े 
मशीन बन कर रह गयी |
हर पल औरों के लिए जिया 
 खुद को समय न दे पाई 
अस्तित्व उसका कब कहाँ  खो गया 
अहसास तक ना हुआ |
सोई रही   गहरी
निंद्रा में 
वही  अचानक भ्रम से जागी 
जो ढूँढ़ती थी वजूद अपना 
केवल चुटकी भर सिन्दूर में |
खाई थीं कसमें दौनों ने 
सातों वचन निभाने की 
घर में कदम रखने के पहले 
बंध गए प्यार के बंधन में |
पर वह भूला सारे वादे 
कच्चा धागा कसमों का टूटा 
 प्यार का बंधन न रहा 
बोझ बन कर रह गया |
अब वह खोज रही खुदको 
सोच रही वह 
क्या से क्या हो गयी 
क्यूं ठगी गयी ?क्या पाया ?
हरियाली सपना हुई 
  अस्तित्व  खोजाना व्यर्थ लगा  
रह गयी अब बूढ़े  वृक्ष की 
सूखी डाली सी |
आशा 



