31 अगस्त, 2013

जमाई

पुराने रीतिरिवाज 
लगते बहुत खोखले 
  मन माफिक बात  न होने पर 
वह झूठे तेवर दिखाता 
अपने को   भूल जाता  |
है किस्सा नहीं अधिक पुराना 
फिर भी जब याद आता 
मन विचलित कर जाता 
सोचने को बाध्य करता 
ऐसे रिश्तों की होती है
 अहमियत क्या ?
है एक गाँव छोटा सा 
आया वहां एक जामाता 
सब आगे पीछे घूम रहे 
नहीं थकते कुंवर जी कहते 
कटु बचन भी सह कर 
उसके नखरे उठा रहे |
फिर भी अकड़
 उसकी भुट्टे सी
कम होने का नाम न लेती 
मीठे बोल नहीं जानता 
तीखा सा प्रहार करता 
रखलो अपनी बिटिया को 
अब मैं  नहीं आने वाला  |
बेटी का कोइ दोष तो होता 
तब बात में दम होता 
वह तो युक्ति खोज रहा 
बिना बात तंग करने की 
अपनी शान बताने की 
मनुहार करवाने की  |
क्यूँ कि है वह मान्य 
सभी अब आधीन उसके 
है यही सोच उसका 
 मर्जी सर्वोपरी उसकी 
क्यूँ कि  है  वह
उस गाँव का  जमाई |
आशा

29 अगस्त, 2013

रिश्ते कैसे कैसे


रिश्ते कैसे कैसे
कितने बने कितने बिगड़े
कभी विचार करना
कब कहाँ किससे मिले
उन्हें याद करना
तभी जान पाओगे
है कौन अपना
 कौन पराया
यूं तो बड़ा सरल लगता है
रिश्तों का बखान करना
सतही हों या अन्तरंग
सम्बन्ध हों  खून के
 या बनाए गए
पर होता सच्चा रिश्ता क्या
इस पर गौर करना
आज तक कितने 
तुम्हें अपने लगे
जिन से बिछुड़ कर दुःख हुआ
कितना उनको याद किया
जो कभी नहीं लौटे
क्या कभी किसी का
 अहसान याद कर पाए
किसीने यदि कुछ बुरा किया
 उसे भुला नहीं पाए
कटुता विष बेल सी बढ़ी
फल भी कड़वे ही लगे
मतलब से ही बने रिश्ते
बाकी से किनारा कर गए
फिर प्रश्न क्या
है कौनसा रिश्ता पास का
और कौनसा दूर का
हैं जाने कितने लोग
 दूरदराज़ के
मतलब से चले आते हैं
सड़क पर मिलते ही
कन्नी काट जाते हैं
तब खुद की सोच बदल देती
परिभाषा रिश्ते की
जो कभी बड़ा निकट होता था
अब सतही लगने लगता |
आशा

27 अगस्त, 2013

कान्हां ने धूम मचाई



पहन कर पीली कछौटी
ओढी काली कमली
मोर मुकुट शीश पर सजाया
 लाठी हाथ में ले कर  |
वन में जा कर धेनु चराई 
फिर बंसी बजाई रास रचाया
कान्हा ने धूम मचाई
वृन्दावन की गलियों में |
चुपके से ऊपर चढ़ कर
दूध दही माखन की मटकी
धीरे से चटकाई
 नटखट मोहन ने |
कुछ खाया कुछ फैलाया
कुछ साथियों को खिलाया
की सीनाजोरी फिर भी
भेद न छुप पाया |
माखन मुंह पर लगा था
कुछ कपड़ों ने भी खाया था
गुजरियों के तानों से
हो कर त्रस्त उल्हानों से 
 माँ यशोदा ने
हाथ पैर रस्सी से बांधे |
क्षमा तब भी न माँगी
रो रो सर पर घर उठाया
खुद को पराया जाया कहा
झूठमूट गुस्सा दिखाया
माँ का मन टटोलना चाहा |
यशोदा माँ हुई आहात
रस्सी से मुक्त किया मोहन को
गोद में तुरंत उठाया
सारा क्रोध भूल गयी
हृदय से उसे लगाया |
गोपिया बिचारी क्या करतीं
जब माँ के पल्लू में मुंह छिपाया
माँ को रक्षा कवच जान
मन ही मन में हर्षाया |

आशा

23 अगस्त, 2013

क्यूं सुनाऊँ मैं


क्यूं सुनाऊँ मैं तुम्हें
उसकी व्यथा कथा
तुमने कभी उससे
प्यार किया ही नहीं |
कुछ अंश ममता का
उससे बांटा  होता
नजदीकियां बढ़तीं
यूं अलगाव न होता |
ऐसे ही नहीं वह
सबसे दूर हो गयी
प्यार की छाँव से
महरूम हो गई |
ममता तुम्हारी मात्र
एक छलावा थी
काश तुमने उसे
 नया मोड़ दिया होता |
इस तरह किरच किरच हो
वह शीशे सी
 ना टूटती  बिखरती
यदि तुमने उसे छला न होता |
 आई थी  रुपहली धुप सी
दस्तक भी दी थी
तुम्हारे दिल के दरवाजे पर
तब सुनी अनसुनी की |
देखा न एक क्षण  को उसे
स्नेह भरी निगाह से
हो कर  उदास बेचैनी लिए
वह ढली सांझ सी |
इन बातों में
 अब क्या रखा है
यह तो कल की
बात हो गयी |
प्यार की चाह में भटकी
गुमराह हो गयी
फूल की चाह में
काँटों से मुलाक़ात हो गयी |
आशा