24 अक्टूबर, 2013
21 अक्टूबर, 2013
वह और गुलाब
आज पुनः आई बहार
चटकी कलियाँ
चटकी कलियाँ
खिले फूल महके गुलाब 
बागवान के आँगन में|
मन पर काबू  नहीं रहा 
हाथ बढा कर  लेना चाहा 
एक फूल उस क्यारी से|
वह तो हाथ नहीं आया 
शूल ने ही स्वागत किया 
नयनों से अश्रु छलके 
उस शूल की चुभन से 
फिर भी मोह नहीं छूटा 
उस पर अधिकार जमाने का | 
बड़ी जुगत से बहुत जतन से 
 केशों में जिसको सजाया 
दर्पण में देखा 
पूंछ ही लिया
पूंछ ही लिया
सच कहना  दौनों में से 
है कौन अधिक सुन्दर ?
वह पहले तो रहा मौन 
फिर  बोल उठा
 हैं
दौनों ही 
 एक से बढ़ कर एक|
फूल तो फूल ही है 
 सुरक्षित कंटक से 
 वह है  उससे भी कोमल
सुन्दर सूरत सीरत वाली
सुन्दर सूरत सीरत वाली
कोई नहीं जिसका  रक्षक |
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18 अक्टूबर, 2013
क्षणिकाएँ
तकलीफों को गले लगा कर 
सीने में बसा लिया है 
ये हें दोस्त मेरी 
ताउम्र  साथ निभाने का 
 वादा जो किया है |
(२)
अन्धकार होते ही
 श्याम रंग ऐसा छाता 
हाथ को हाथ न सूझता 
साया तक साथ न देता 
बेचैन उसे कर जाता |
(३)
इस गुलाब की महक ही
खींच लाई है आप तक
मैंने राह खोज पाई है
आपके ख्वावगाह तक |
(४)
रिश्ते खून के ताउम्र
जौंक से चिपके रहते
कतरा कतरा रक्त का
चूस कर ही दम लेते |
(५)
चाँद तूने वादा किया था
रोज रात आने का
पर तूने मुंह छिपाया
बादलों की ओट में |
(६)
की तूने वादा खिलाफ़ी
हद हुई नाइंसाफ़ी की
कारण तक न बताया
अपने इस पलायन का |
आशा
(३)
इस गुलाब की महक ही
खींच लाई है आप तक
मैंने राह खोज पाई है
आपके ख्वावगाह तक |
(४)
रिश्ते खून के ताउम्र
जौंक से चिपके रहते
कतरा कतरा रक्त का
चूस कर ही दम लेते |
(५)
चाँद तूने वादा किया था
रोज रात आने का
पर तूने मुंह छिपाया
बादलों की ओट में |
(६)
की तूने वादा खिलाफ़ी
हद हुई नाइंसाफ़ी की
कारण तक न बताया
अपने इस पलायन का |
आशा
15 अक्टूबर, 2013
झूठ नामां
झूठ नामां 
सुना था झूठ  के पैर नहीं होते 
आज नहीं को कल 
मुखोटा उतर जाता है 
वह छुप नहीं पाता |
पर अब देख भी लिया 
भेट हुई एक ऐसे बन्दे से 
थी जिसकी झूठ  से गहरी यारी 
इसकी  ही
बुनियाद पर उसने 
शादी तक रचा डाली 
पहले पत्नी दुखी हुई 
फिर निभाती चली गयी |
प्रथम भेट में अपने को उसने 
 इंजीनियर
बता प्रभावित किया 
अपने चेहरे मोहरे का
 पूरा
पूरा लाभ उठाया |
जब भी मिला किसी से 
 बड़े झूठ  के साथ मिला 
घर पर तो मुझे वह
 खानसामा
ही नजर आया |
पत्नी ने भी बात बनाई 
खाना बनाना और खिलाना 
इनको बहुत भाता है 
तभी तो हैं अवकाश पर 
आप लोग जो आए हैं |
एक दिन हम जा पहुंचे 
उसके बताए ऑफिस में 
बहुत खोजा फिर भी न मिला 
तभी एक ने बतलाया 
अरे आप किसे खोज रहे  
वह कोइ इंजीनियर न था 
फर्जी अंक सूची लाया था 
केवल बाबू लगा था |
जब पोल पकड़ी गयी 
वह नौकरी भी उसकी गयी 
अब है वह बेरोजगार 
एक झूठ 
हो तो गिनाए कोई 
समूचा झूठ  में था  लिप्त 
सच से परहेज किये था |
उसने कभी सच बोला ही नहीं
था झूठों का सरदार
केवल  झूठ
 का भण्डार | 
12 अक्टूबर, 2013
एक व्यंग (मंहगाई )
विजय दशमी पर हार्दिक शुभ कामनाएं |लीजिये आज प्रस्तुत है एक व्यंग मंहगाई पर :-
हूँ मैं मंहगाई
अनंत है  विस्तार मेरा 
एक ओर नियंत्रण हो तो 
दूसरी ओर विस्तार होता |
मनुष्य आकंठ डूबा मुझ  में 
गहन वेदना सहता 
फिर भी बच नहीं पाता
मेरे दिए दंशों से |
देख आदमी की विकलता 
बेबसी और बेचारगी 
दुष्टानन्द अवश्य होता 
फिर भी मेरा तोड़ न होता |
हूँ स्वच्छंद स्वेच्छाचारिणी 
किसी का बस नहीं चलता 
साहस कर यदि उंगली उठाता 
कुछ कहने का अवसर पा कर 
क्षण भर में कुचला जाता 
वह वहीं दब कर रह जाता |
आम आदमी है परेशान 
बेहाल मेरी मार से 
उसका सोच तक दूषित होता  
भ्रष्टाचार के पथ पर चलता 
उदर पूर्ति के लिए 
अधिक धन की जुगाड़ में |
मैं सहोदरा भ्रष्टाचार की 
फिर भी मन उसका अशांत 
मेरा छोर 
नहीं पाता
मेरे दिए दंशों से बच नहीं प़ता |
आशा 
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