कब से बैठे राह देखते 
सोच में डूबे छोटी बातो पर हो दुखी  
मन के  विरुद्ध   बातें सभी 
देखकर सामंजस्य  बनाए रखें  |
 फिर  न टूटे  यह कैसा है न्याय प्रभू 
खुद का खुद से या  समाज का  हम से 
हमने कुछ अधिक की चाह  नहीं की थी |
कहीं अधिक की अपेक्षा  न की थी  
मन छलनी छलनी हो गया है
अपने साथ उसकी  बेरुखी देख 
मन जार जार रोने को होता  
 इन बदलते  हालातों को देख कर |
हमने किसी से अपेक्षा कभी न रखी  
ना ही कुछ चाह रखी थी 
उससे पूर्ण  करने को  लिया  था वादा  
 जीवन का  बोझ न  रखा उस पर 
बस यही सोचा था मन में अपने  
हमने कुछ गलत न किया था किसी  के साथ 
फिर भी कितना कपट भरा था उसके दिल में |
 देखा जब पास से सोच उभरा  हम कितना गलत थे 
तुमसे भी क्या अपेक्षा करें  या किसी ओर से  
मन को ठेस बहुत  लगी  है 
जब खुद के भीतर कोई झांकता नहीं 
बस दूसरों  की कमियाँ ही देख सकता है
हमने  सोच लिया है शायद है प्रारब्ध में यही 
अब मन से बोझ उतर जाएगा 
जब कोई अपेक्षा किसी से न होगी   |
आशा सक्सेना