सुनहरी धुप प्रातः की
जब भी खिड़की से झांकती
नैनों से दिल में उतरती 
दिल को बेचैन करती | 
जब कभी विगत में झांकती 
उसे याद करती मन से
 वही गीत गुनगुनाती फिर से 
जो कभी उसने  गाया था मंच पर |
जितनी तालिया मिलीं थी 
उनकी मिठास आज तक सुनाई
देती 
मधुर धुन कानों में गूंजती 
मंजिल को सक्षम हो छूने के लिए |
 स्वप्न साकार हुआ था उसदिन 
पहले अक्सर  सोचा करती थी 
कब मुझको भी सफलता मिलेगी  
तालियों का उपहार मिलेगा |
मन  हुआ था उत्साहित  
समूचा कम्पित हुआ था तन मन  
 मंच पर पैर रखते ही
 तालियों की गूँज सुन कर  |
आज के युग की नारी हूँ 
कदम पीछे कैसे  हटाती  
जो सुख मिला सफलता से 
मस्तक उन्नत हुआ मेरा 
तालियों के स्वागत से |
यही चाहत  भी  थी
मेरी 
अग्र पंक्ती में सदा रहने
की 
अपनी योग्यता साबित करने की
सोच था किसीसे कम नहीं मैं
| 
आशा  
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (09-03-2022) को चर्चा मंच "नारी का सम्मान" (चर्चा अंक-4364) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंआभार सर मेरी रचना को स्थान देने के लिए आज के अंक में |
सुंदर सशक्त रचना ।
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