क्या कुछ कहा तुमने
 ना ही कुछ सुना
उसने 
 क्या
तुम ही बचे थे 
उलझने के लिए |
यह क्या आदत है तुम्हारी  
उसके बिना ना चलने की
राह में झगड़ने की
कभी समझाया तो होता |
इतनी उम्र होते हुए भी
अपना भलाबुरा न समझा 
क्यों व्यर्थ झगड़ते हो 
किस बात का बदला लेते हो |
 आज तक समझ
ना पाई   
तुम क्या चाहते हो उस से  
सब कुछ तो ले लिया 
अब कुछ नहीं रहा शेष |
कैसे समझोगे यह बात 
समझा कर हार गई है  
उसने शांति से समझाया 
कभी रौद्र रूप भी दिखाया |
तुम वहीं के वहीं रहे 
चिकने घड़े की तरह 
कोई फर्क नहीं तुममें हुआ 
वह हारी सब कह कह कर |
अब तो जीवन ऐसे ही कटेगा 
काँटों भरी राह पर चलते 
नयनों से नीर बहाते 
कंधा किसी का न मिलेगा
 सांत्वना पाने के लिए   |
जब बाढ़ आ जाएगी 
उसमें डूबते उतराते आगे बढ़ेगी 
अंत तक कोई सहारा ना होगा
जिसकी मदद ली जा सके |
आशा सक्सेना 
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मन की व्यग्रता और चिंता की सार्थक अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
हटाएंआभार रवीन्द्र जी मेरी रचना की सूचना के लिए पांच लिंकों के आनंद में |
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