03 अप्रैल, 2020

इस तिरंगे की छाँव में





इस तिरंगे की छाँव में

जाने कितने वर्ष बीत गए
फिर भी रहता है इन्तजार
हर वर्ष पन्द्रह अगस्त के आने का
स्वतंत्रता दिवस मनाने का |
इस तिरंगे के नीचे
हर वर्ष नया प्रण लेते हैं
है मात्र यह औपचारिकता
जिसे निभाना होता है |
जैसे ही दिन बीत जाता
रात होती फिर आता दूसरा दिन
बीते कल की तरह
प्रण भी भुला दिया जाता |
अब भी हम जैसे थे
वैसे ही हैं ,वहीँ खड़े हैं
कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ
पंक में और अधिक धंसे हैं |
कभी मन में दुःख होता है
वह उद्विग्न भी होता है
फिर सोच कर रह जाते हैं
अकेला चना भाड़ नहीं फोड सकता
जीवन के प्रवाह को रोक नहीं सकता |
शायद अगले पन्द्रह अगस्त तक
कोई चमत्कार हो जाए
हम में कुछ परिवर्तन आए
अधिक नहीं पर यह तो हो
प्रण किया ही ऐसा जाए
जिसे निभाना मुश्किल ना हो |
फिर यदि इस प्रण पर अटल रहे
उसे पूरा करने में सफल रहे
तब यह दुःख तो ना होगा
देश भक्ति के लिए जो प्रण हमने किया था
उसे निभा नहीं पाए |
अपने देश के प्रति कुछ तो निष्ठा रख पाए
 किसी विशिष्ट व्यक्ति का तमगा नहीं चाहिए 
सच्ची देश भक्ति   का जज्बा चाहिए 
जिससे हम  अपना प्रण पूरा कर पाएं |

आशा

9 टिप्‍पणियां:

  1. धन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |

    जवाब देंहटाएं
  2. देशभक्ति से ओत-प्रोत
    बहुत सुन्दर और सार्थक रचना।

    जवाब देंहटाएं
  3. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(०५-०४-२०२०) को शब्द-सृजन-१४ "देश प्रेम"( चर्चा अंक-३६६२) पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  4. धन्यवाद सहित आभार अनीता जी सूचना के लिए |

    जवाब देंहटाएं
  5. ओजपूर्ण सार्थक रचना ! बहुत सुन्दर !

    जवाब देंहटाएं
  6. धन्यवाद सुधा जी टिप्पणी के लिए |

    जवाब देंहटाएं

Your reply here: