मुझे यह गुमान हुआ है
कभी किसी ने प्यार ही
नहीं किया मुझको
जब कि मैंने सब कुछ छोड़ा उनपर |
अब लगने लगा है
मानों मेरा वजूद ही नहीं
जी रही हूँ एक बेजान गुडिया सी
कभी खुद का एहसास भीं ना होगा |
मुझे यह गुमान हुआ है
कभी किसी ने प्यार ही
नहीं किया मुझको
जब कि मैंने सब कुछ छोड़ा उनपर |
अब लगने लगा है
मानों मेरा वजूद ही नहीं
जी रही हूँ एक बेजान गुडिया सी
कभी खुद का एहसास भीं ना होगा |
कल्पना के इस दौर में
कैसे दूर रहूँ उससे
सब ने समझाया भी इतना
कभी कहने में आई यही बात
मन को ना भाई कैसे |
कविता का कोई रूप नहीं होता
केवल भावनाएं ही होतीं उसमें
सुन्दर शब्दों से सजी है
मन में हिलोरे खा रही है |
प्यार से सजी हुई है
दिलों दीवार में घुमड़ा रही हैं
कभी नदिया सी बेखौफ बह रही हैं
अपनी राह से है लगाव इतना
आगे आने वाले राह नहीं भटकते |
यही मन को रहा एहसास
पर मुझे भय नहीं है
अपने ऊपर आत्मविश्वास है इतना
कभी पैर ना फिसले ताकत से रहे भर पूर
यही है अभिलाषा मेरी
चंचल चपला सी प्रकृती में पथ खोज रही है
आशा सक्सेना
१-कितने स्वप्न
देखे हैं दिन ही मैं
समझ आई
२-ये सपने भी
कभी खोते जाते हैं
नहीं मिलते
३-जानते नहीं
उलझाते रहे है
बचाओ मुझे
४-प्यार से बंधे
इतने मजबूत
उसे जकडे
५-तेरा प्यारहै
इतना नाजुक कि
मोम जैसा है
आशा सक्सेना
कभी ख़ुशी कभी गम
आए दिन की बात है
मैं सोच नहीं पाती |
की फरमाइशें बच्चों ने
जिनको पूरा कर न सके
पत्नी की उदासी में
सारा दिन हुआ बर्बाद |
मन को इतना कष्ट हुआ
तुम् सह नहीं पाओगे
सोचोगे कैसे जीवन जिया जाए
वह तो मुझे ही जीना है|
मै किस तरह जीता हूँ
किसी से कह भी नहीं सकता
सोच रहा हूँ कहीं दूर चला
जाऊं
वहीं से नौकरी करूकुछ मदद करू
और कोई विकल्प नहीं मेरे
पास |
आशा सक्सेना
जीवन एक पेड़ जैसा
पहले पत्ते निकलते
फिर डालियाँ हरी भरी होतीं
वायु के संग खेलतीं
धीरे धीरे कक्ष से
कलियाँ निकलतीं
पहले तो वे हरी होतीं
फिर समय पा कर
खिलने लगतीं तितली आती
इन से छेड़छाड़ करतीं
भ्रमर भी पीछे ना
वे प्यार में ऐसे खो जाते
पुष्प की गोद में सिमट रहते
जब तक संतुष्टि ना हो
वहीं सो रहते
मन भर जाते ही अपनी राह
लेते
इन तीनों का खेल देखने
में
बड़ा मनोरम लगता
हरी डाल पर रंगीन पुष्प अद्भुद
द्रश्य होता |
आशा अक्सेना
इस संसार में अनेक जीव रहते
अपना जीवन व्यापन करते
एक दूसरे को अपना भोजन
बनाते
बड़े का वर्चस्व होता छोटे
पर
इसी लीक पर चल रहा
आज का समाज
ताकतवर से कोई
जीत नहीं पाता
सदा उसके ही गीत गाता
उसके अनुरूप चलती
मन में सोचता कब तक गुलामी
सहेगा
ईश्वर ने किस बात की सजा दी
है
उसका अस्तित्व कैसे दबा दबा
रहेगा
अब तो ऐसे वातावरण में
जीने का मन नहीं होता
सोचता रहा कैसे भव सागर
पार करू
दूसरा किनारा देख मन मुदित
होता
जैसे ही प्रहार लहर का होता
वह जल में वह विलीन हो जाता |
बाँसुरी ली हाथ बन मैं बजाई
मधुर धुन जब सुनी ग्वालों ने
दौड़े चले आए वहां पर |
धेनु चराई शाम तक
घर को चले थके हारे ग्वाले
गायों को भी भूख लगी थी
घर पर दाना पानी का प्रवंध किया
राधाने नाराजगी जताई
रूठी रहीं बात न की
कड़ी धुप में तुम मुरझा जातीं
तुम क्या जानो ठंडी हवा में
वन में घूमने का आनंद
कृष्ण ने समझाया
कल ले चलने का वादा किया
तब जाके मन पाईं राधा |
आशा सक्सेना |