11 जनवरी, 2020

मन बचपन का




कोरे कागज़ सा मन बचपन का
भला  बुरा न समझता
ना  गैरों का प्यार
जो  होता मात्र दिखावा |
दुनियादारी से दूर बहुत
 मन उसका कोमल कच्चे धागे सा
जितना सिखाओ सीख  लेता  
उसी का अनुकरण करता |
गुण अवगुण का भेद  न जान   
अपने पराए में भेद न करता  
 मीठे बोल उसे करते आकृष्ट     
 खीचा चला जाता उस ओर|
जिसने भी बोले  मधुर बोल
 उसी को अपना मानता
 होती वही प्रेरणा उसकी
उसी का  अनुगमन करता |
मन तो मन ही है
 बचपन में होता चंचल जल सा 
स्थिर नहीं रहता
जल्दी ही बहक जाता है |
जरा सा दुलार उसे अपना लेता
माँ से बड़ा जुड़ाव है रखता  
 उसमें  अपनी छाया पा
  मन मेरा  गर्व से उन्नत होता |
आशा



10 जनवरी, 2020

हिन्दी



हिन्द के माथे की बिंदी
दमक रही  ऐसी कि
  उस की शोभा पर
  नजर नहीं टिकती
उसके आगे अब तो
 सब की रंगत फीकी
सोलह सिंगार अधूरे
 लगते उसके बिना
तभी तो बनी सिरमोर हिन्दी
 यहाँ सभी भाषाओं की
हमें है गर्ब अपनी
 भाषा हिन्दी पर
है सरल बौधगम्य
कठिन नहीं व्याकरण इसकी |
                                     आशा

09 जनवरी, 2020

विकल्प


हूँ  गुनहगार
अवगुणों की खान
जितनी बार मन को टटोला
हर बार अपनी कमियों को देखा
अनदेखा न कर सकी
आत्म मंथन किया |
अवगुणों में  कोई  कमीं न आई  
सुधार की किरणे
 उन्हें छू तक न पाईं 
अब तो आशा छोड़ चुकी हूँ
झूटी दिलासा से क्या होगा |
जब बीमारी लाइलाज हो  
समूल नष्ट कर देना है बेहतर
 मैं अब जान गई हूँ  
अपने आप को पहचान गई हूँ |
चाहे जितने यत्न करू
 सभी  यूंही जाया हो जाते
लाइलाज व्यक्ति  को
 भाग्य भरोसे छोड़ा जाए
 या कोई इलाज किया जाए
उसे कोई फर्क नहीं पड़ता |
  वह यदि  भाग्यवादी हो जाए मुस्कुराए
 नकली मुखौटा चहरे पर लगाए
उसके मन में क्या उथलपुथल होती है
वही जान पाता है |
अपनी सोच के विकल्प को
सही ढंग से पहचान कर
वही खोज सकता है
सही दिशा दे सकता है
 कोई अन्य नहीं |
आशा

07 जनवरी, 2020

चोट







                                       पीड़ा तन की फिर भी
सहन की जा सकती है
चोट में दर्द से निजात पाना
 कठिन तो होता है पर असंभव नहीं |
 मन में बिंधे शब्द बाण
करते  गहरे  घाव
जरा सी रगड़ से बनते नासूर
जब तब रिसाव उनसे होता
खून के आंसू  नयनों से टपकते
इतना रुलाते हैं कि
नयनों में सुनामी आ जाती है
तट बंध  टूट जाते हैं |
इतना  दारुण कष्ट  होता
सहनशक्ति जबाब दे जाती
सारी शिक्षा धरी  रह जाती  
स्त्री मन होता धरती सा
 उसमें है  सहन शक्ति अपार
कहना बड़ा सरल है पर
जिस पर बीतती है वहीं
इसको अनुभव कर पाती है |
चोट कैसी भी हो
शारीरिक या मानसिक
दौनों में है अंतर बृहद   
तन की चोट समय पा
 ठीक तो हो जाती चाहे पूरी न हो  
 मन की चोट समय के साथ
और अधिक गहराती  
कटु शब्द प्रहार करते इतने गहरे
कि घाव नासूर में बदल जाते  
 मन को लगी चोट ठीक नहीं हो पाती
 दिल की  गहराई में पैंठ जाती
उत्तरोत्तर समय पा   
अधिक ही  उभर कर आती | 
                                             
          आशा