11 जनवरी, 2020

मन बचपन का




कोरे कागज़ सा मन बचपन का
भला  बुरा न समझता
ना  गैरों का प्यार
जो  होता मात्र दिखावा |
दुनियादारी से दूर बहुत
 मन उसका कोमल कच्चे धागे सा
जितना सिखाओ सीख  लेता  
उसी का अनुकरण करता |
गुण अवगुण का भेद  न जान   
अपने पराए में भेद न करता  
 मीठे बोल उसे करते आकृष्ट     
 खीचा चला जाता उस ओर|
जिसने भी बोले  मधुर बोल
 उसी को अपना मानता
 होती वही प्रेरणा उसकी
उसी का  अनुगमन करता |
मन तो मन ही है
 बचपन में होता चंचल जल सा 
स्थिर नहीं रहता
जल्दी ही बहक जाता है |
जरा सा दुलार उसे अपना लेता
माँ से बड़ा जुड़ाव है रखता  
 उसमें  अपनी छाया पा
  मन मेरा  गर्व से उन्नत होता |
आशा



8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 11 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. सुप्रभात
    सूचना के लिए आभार अनीता जी |

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  3. सुप्रभात
    टिप्पणी के लिए धन्यवाद नीलांश जी |

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  4. मन की गति कौन समझ सकता है ना ही कभी उसकी उम्र आँकी जा सकती है ! कभी बच्चों सा चंचल होता है तो कभी बड़ों सा प्रौढ़ ! सुन्दर रचना !

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