बदले की भावना के बीज
हर कण में बसे हैं
भले ही सुप्त क्यों न हों
जलचर, नभचर और थलचर
सबके अंतस में छिपे हैं !
जब सद्भाव जागृत होता
मानस अंतस में अंगड़ाई लेता
कहीं सुप्त भाव प्रस्फुटित होता
जड़ें गहराई तक जातीं
डाली डाली पल्लवित होती
जब किसीका सामना होता
खुल कर भाव बाहर आता
एक से दो , दो से चार
आपस में जुड़ जाते
फिर समूह बन आपस में टकराते
द्वंद्व युद्ध प्रारम्भ होता
जिसका कोई अंत न होता
आज का समाज
बिखराव के कगार पर है
यही तो कलयुग का प्रारम्भ है !
आशा सक्सेना