18 अक्टूबर, 2014

पागल प्रेमी


पागल  प्रेमी धूम रहा
अतृप्त प्यास अपनी लिए
धूल में मिलना चाहता
हार मान खुद की प्रिये |
नहीं जानता विधि कोई
अपने को व्यक्त करने की
अंतस में उफान है
उसी में लिप्त हुआ है |
पाकर खुद को  असहाय
 है विचलित विमोहित
कल्पनाएं भूल गया है
उसे खोजने में |
ऐसा सोचा न था 
प्रेम पंथ है  कांटो भरा  
सच्चाई है इतनी कुरूप 
अब वह जान गया है |
सारा तिलस्म   भंग हो गया
है उदास खुद में सिमटा
तभी पलायन का विचार
मन में आ गया है |
नत मस्तक बैठा सहलाता 
अपने चोटिल पैरों को 
अश्रु जल से धोना चाहता 
हृदय के हरे जख्मों को |
पागल मन तब भी अस्थिर है 
चैन नहीं लेने देता 
कष्ट जो सहे हैं 
हर बार कुरेद देता |



आशा  



14 अक्टूबर, 2014

भूचाल



सूखी स्याही कलम की
लिखावट तक स्पष्ट नहीं
धूमिल हुई
 आंसुओं की वर्षा से
समीप ऐसा  कोई नहीं   
जो हाथ बढाए उसे रोक पाए
दिमागी अंधड़ से बचा पाए
सब मेरे ही साथ क्यूं ?
क्या कोई और नहीं मिलता
ऐसे भूचालों को
ना स्वयं जीना चाहते
ना ही किसी को जीने देते
यदि कभी हंसी आजाए
खिलखिलाहट घर में गूंजे
बड़ा बबाल मच जाए
खुद अट्टाहस करते
दूसरे का चैन छीन
कितना सुकून मिलता होगा  
 केवल वही जानते
मेरे एहसास मेरे साथ
इस तरह चिपके हैं
पीछा नहीं छोड़ते 
खुश रहने नहीं देते
बेचैन किये रहते
काश मुक्ति मिल पाती
ऐसे भूचालों से
दिमाग कभी खाली हो पाता
व्यर्थ के एहसासों से |
आशा  

12 अक्टूबर, 2014

बदलते तेवर






बदलते तेवर मौसम के
देते दस्तक दरवाजे पर
अचानक आते परिवर्तन
कई घर जल मग्न|
 संकेत किसी आपदा का
पूर्वाभास गहरी क्षति का
एकाएक अनहोनी घटती
प्रकृति विद्रोह का आगाज़ करती |
चाहे सुनामी या हो  हुद हुद
या हो कहर ग्लेशियर का 
बारिश का या बाढ़ का
सारा अमन चैन हर लेता |
तिनका तिनका जोड़ जोड़ कर 
घर संसार बसाए गए थे 
क्षण भर में हो  ध्वस्त 
जाने कितनो को  विछोह देते |
नयनों का रिसाव न थमता 
फिर भी कोई  हल न निकलता 
क्रूर प्रहार  प्रकृति का 
विषधर सर्प सा होता 
पानी तक पीने न देता |
कितनी भी मदद मिले 
मन पर लगे घाव 
भरने का नाम नहीं लेते 
सदा हरे बने रहते |
आशा