21 अगस्त, 2020

पारिजात के पुष्प






हो तुम  खुशबू का खजाना
    दिया जो उपहार में
इस प्रकृति नटी ने तुम्हें
 सवारने सहेजने के लिए |
दी अपूर्व सुन्दरता हर एक पंखुड़ी में  
श्वेत रंग दिया भरपूर
नारंगी रंग की  डंडी ने 
अद्भुद निखार लाया है|
जब धरती पर
 पुष्प  झर झर झरे
 मंद मंद हवा बहे  
एक अनूठी सैज सजे  
पारिजात वृक्ष के तले |
जागा अदभुद एहसास
उस पर कदम पड़ते ही
 मन को सुकून आया है
देखी तुम्हारी बिछी श्वेत चादर
कितने जतन किये थे मैंने
तुम्हारे रूप को सजाने में |
हो तुम श्वेत सुन्दर अनुपम कृति
ईश्वर प्रदत्त उपहार में हमें
रोज चढ़ाए जाते 
पुष्प प्रभु के चरणों में
 महकता मंदिर का आँगन
 अनुपम सुगंध से है जो  है  प्रिय
 हमें और हमारे आराध्य को
आशा  

19 अगस्त, 2020

उसे तो आना ही है |







                                                              मुडेर पर बैठा कागा
याद किसे करता
शायद कोई  आने को है
दिल मेरा कहता |
जल्दी से कोई चौक पुराओ
आरते की  थाली सजाओ
किसी को आना ही है
मन मेरा कहता |
तभी तो आती  हिचकी
रुकने का नाम नहीं लेती
फड़कती आँख
 शुभ संकेत देती|
कह रहे सारे शगुन 
द्वार खुला रखना 
ढेरों प्यार लिए 
कोई आने को है |
हैं क्या ये  संकेत ही 
या मन में उठता ज्वार 
कितने सही कितने गलत 
 आता मन में विचार |
आशा


आराधना


प्रति दिन नैवेद्ध चढ़ाया
 आरती की दिया लगाया
घंटी बजा कर की आराधाना   
किया नमन ईश्वर को मन से   |
पर शायद ही कभी जांचा परखा 
 कितनी सच्ची आस्था है मन में
 या  मात्र औपचारिकता निभाई है
दैनिक आदतों की तरह जीवन में |
दे रहे धोखा किसे ईश्वर को या खुद को
इतने समय भक्ति भाव में डूबे रहे  
पर आस्था ने अपना रंग न जमाया  
मन का भार उतर ना पाया |
ईश्वर अपनी अदृश्य दृष्टि से
 समदृष्टि से देख रहा है सब को
 कोई और न मिला जो समझे समझाए  
ईश्वर की इस अदृश्य लीला को |
किया जिसने विश्वास प्रभू पर सच्चे मन से
उसका  ही बेड़ा पार हुआ
भवसागर के इस  भवर जाल  से
पहुंचा उसपार किनारे बिना किसी  बाधा के  |
आशा

17 अगस्त, 2020

परिवर्तन

                           देखे कई उतार चढ़ाव
इस छोटी सी जिन्दगी में
बड़ी विषमता देखी
बचपन और जवानी में  |
 युवावस्था आते ही
भोला बचपन  तिरोहित हुआ
दुनियादारी में ऐसा उलझा
परिवर्ता आया व्यक्तित्व में |
 बचपन में था हंसमुख चंचल
 अब ओढ़ी गाम्भीर्य की चादर
खुद का व्यक्तित्व किया समर्पित
 दुनियादारी की इस  दौड़ में |
युवावस्था  भी बीत चली 
 जब दी  दस्तक वृद्धावस्था ने
अंग हुए शिथिल थकावत ने आ घेरा  
पहले जैसी चुस्ती फुर्ती  अब  कहाँ |
फिर से आया परिवर्तन अब
देखी एक बड़ी समानता
बचपन और वृद्धावस्था में
हर बात पर जिद्द करना 
कई बार   कहने पर एक बार सुनना
हर समय मनमानी करना |
कथनी और करनी में आया बड़ा अंतर  
मन की बात किसी से न कही
अन्दर ही मन में  घुटते   रहे
परेशानी न बांटी किसी से अंतर्मुखी हुए |
पराश्रित हुए हर छोटे से कार्य के लिए
बचपन की तरह जिए   
अकेले ही जीवन की  गाड़ी खींच  रहे
 बड़ी समानता देखी है यही |
 बचपन बीता खेलकूद में
अब अकेले ही उलझे हुए हैं
 अपनी समस्याओं के भ्रमर जाल में
कोई ऐसा न  मिला
जो समझे मनोभावों को |
वे क्या चाहते है ?
कैसे समय बिता सकते हैं ?
कहाँ तो बाहरी दुनिया में थे सक्रीय
अब हुए निष्क्रीय |
बड़ी समानता लगती है
बचपन में और बढ़ती  उम्र में
जरासी बात पर नाराज होना
                                 फिर जल्दी से न मनना
हुए हैं लाइलाज कोई नहीं समझ पाया |

आशा