कठिन ऊबड़
खाबड़ है जीवन की डगर
काँटों से भरी है हुआ चलना दूभर
पैरों में चुभे कंटक
इतने गहरे कि
निकालना सरल नहीं कष्ट इतने कि सहे नहीं जाते |
होती रूह कम्पित कंटक निकालने में
आँखें भर भर आतीं धूमिल होतीं कष्ट सहने में
दुखित होता पर
फिर लगता यही लिखा है प्रारब्ध में
जीवन है
एक छलावा इससे दूर नहीं हो सकते
जितनी जल्दी हो अपने
कर्तव्य पूरे करना चाहते |
पर उनकी पूरी सूची समाप्त नहीं होती
पहली पूरी होते न
होते दूसरी दिखाई दे जाती है
फिर भी मुंह मोड़ना नहीं चाहता अंतस कर्तव्यों से
सोचती हूँ क्या अपने अधिकारों को पा लिया मैंने |
सोचते हुए अधर में लटकता सोच अधूरा ही रहता
न कर्तव्यों का अंत होता न अधिकारों की मांग का
एक कंटक निकल कर कुछ सुकून तो देता
पर इतने घाव सिमटे
हैं दिल में कि
मुक्ति ही नहीं मिलती जाने कब ठीक होंगे
सामान्य सा जीवन हो
पाएगा |
अब छोड़ दिया उलझनों को
परमपिता परमेश्वर के हाथों में
खुद को भी समेट लिया जीवन के प्रपंचों से दूर
भक्ति का मार्ग चुना है निर्भय कंटकों से दूर |
आशा