05 मई, 2022

हूँ दैनिक वेतन भोगी

 हूँएक दैनिक वेतन भोगी 

नेत्र खुलते ही  सुबह होती है 

धुदलका होते ही घर जाने की जल्दी में 

चल देता हूँ अपने बसेरे में |

सड़क के किनारे पेड़ के नीचे 

लकडियाँ  जला रोटी बना लेता हूँ |

फिर बाँध कर सामान  एक कपडे में 

झाड के ऊपर रख लेता हूँ |

वही है असली विश्राम घर मेरा रात भर के लिए |

सुबह सवेरे सुलभ   काम्प्लेस में 

नित्य कर्म से निवृत्त हो चल देता 

काम की तलाश में |

नहाता धोता हूँ  कभी वैसा ही रह जाता हूँ 

जब अवसर नहीं मिलता |

सारे दिन का बेतन दो  टाइम का भोजन दे सकता है

 पर घर भेजने को कुछ भी नहीं |

अपने धर वालों को गाँव भेज दिया है 

 बुजुर्गों की देख रेख के लिए |

और मैं क्या करता कोई और तरीका नहीं सूझा मुझे |

वे भी दिन भर काम करते हैं वहां 

उन्हें शिकायत रहती है मुझसे कोई भी मुफ्त रोटी नहीं देता 

हाड़ की बूँद बूँद सोख लेता है |

 उनके लिए क्या किया मैंने ?शिकायत वाजिब है यह

मैं अपने कर्तव्य पूर्ण नहीं कर पाता यहीं मैंने मात खाई है 

दो अक्षर भी ध्यान से नहीं पढ़े यदि पढ लिया होता

आज यह दिन न देखना पडता |

पर समय बीत गया  अब पछताने से क्या लाभ 

लॉग डाउन होने पर   कितने ही दिन भूखा रहा 

केवल पानी से ही काम चलाया फिर विचार आया 

वेतन  न मिला फिर धन  के अभाव में 

 पैदल ही चल दिया अपने गाँव 

 बीबी बच्चों के पास |

आशा 


 

04 मई, 2022

मुराद मेरी

 


मुराद मेरी कब तक पूरी होगी

कुछ कहा नहीं जाकता

बेचैन हो रही हूँ

कब तक इन्तजार करती रहूँगी|

बहुत है कठिन जानना  

यह किस समस्या का कारण बना

अब तक सोच भी नहीं पाई कि

इतना तेज धमाका हो गया |

अब तक पैरों में थरथराहट है

मुझे गुमान अपने पर है

मेरे पैर नहीं डगमगाए

जिस मार्ग पर चली |

जो  मार्ग मैंने चुना था

किसी को क्या समस्या आई

उस मार्ग पर चल कर 

कभी परीक्षण कर लिया होता  

यह प्रपंच न होता |

मेरा समय बिगड़ा है इन्ताजार में

अब हुई सतर्क दुनिया के छल छिद्र से

खुद को बचा कर रखा है

दुनिया के सारे माया जाल से  |

सहज जीवन शैली अपनाई

मैंने यह इन्तजार क्यों अपनाया

अब सोचने को बाध्य हूँ

क्या करूं कितना धैर्य रखूँ  |

आशा

01 मई, 2022

दिल दरिया सा



दिल  बहती दरिया सा  

धड़कता  एक रफतार से 

बाधा जब आती

चाल अवरुद्ध होती उसकी भी  |

पर यह अवरोध

अधिक समय न ठहरता

बह जाता नदिया के जल जैसा   |

अपनी आजादी की कीमत पर

कोई अवरोध स्वीकार नहीं उसे

गति भी कम हो सहन नहीं उसे

 ध्वनि धीमी वह सह न पाता   |

यही विशेषता रही सदा से उसकी

 सब जैसा  वह हो नहीं पाता 

इसी लिए है सबसे भिन्न

 है दिल दरिया जैसा  |

आशा 



चौबारा


 


चौबारा देखा नहीं आज के  

 गावों के मकानों में

पहले  घर होते थे कच्चे

पर लिपे पुते साफ  सुथरे |

चाहे छत हो कबेलू की पर

चौबारा अवश्य रहता था घर में

सुबह से शाम तक व्यस्तता

बनी रहती थी वहां |

 थी कर्म भूमि घर के सदस्यों की

बीचोंबीच लगा होता था  नीम का पेड़

वहां झूला पड़ा होता था गीत गाए जाते थे

सावन के होली  के सहेलियों के संग |

तुलसी का चौरा वहां होता था

घर की गृहणी स्नान कर दिया लगाती

 जल चढ़ाती तुलसी पर वहां

फिर दैनिक कार्यों में हो जाती थी व्यस्त |

आज के गाँव भी हुए आधुनिक

घर तो अभी भी कच्चे हैं पर चौबारे हुए लुप्त

एक ही घर में कई परिवारों का बसेरा है

चौबारा खो गया है भीड़ में |

आशा