चौबारा देखा नहीं आज के
गावों के मकानों में
पहले घर होते थे कच्चे
पर लिपे पुते साफ सुथरे |
चाहे छत हो कबेलू की पर
चौबारा अवश्य रहता था घर में
सुबह से शाम तक व्यस्तता
बनी रहती थी वहां |
थी कर्म भूमि घर के सदस्यों की
बीचोंबीच लगा होता था नीम का पेड़
वहां झूला पड़ा होता था गीत गाए जाते थे
सावन के होली के सहेलियों के संग |
तुलसी का चौरा वहां होता था
घर की गृहणी स्नान कर दिया लगाती
जल चढ़ाती तुलसी पर वहां
फिर दैनिक कार्यों में हो जाती थी व्यस्त |
आज के गाँव भी हुए आधुनिक
घर तो अभी भी कच्चे हैं पर चौबारे हुए लुप्त
एक ही घर में कई परिवारों का बसेरा है
चौबारा खो गया है भीड़ में |
आशा
अब क्या शहर क्या गाँव फ्लैट सिस्टम चल पडा है हर जगह ! आँगन चौबारे वाले खुले खुले घर अब विलुप्त से होते जा रहे हैं ! सुन्दर रचना !
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