14 दिसंबर, 2012

परिंदा

बेबस  सा परकटा परिंदा
पिंजरे से बाहर झांकता
बारम्बार किसी को पुकारता
उड़ने को बेकरार लगा |
पर कोई ध्यान नहीं देता
यही सोच कर रह जाता
शायद आदत है  उसकी ऐसी
हर बात बार बार रटने की |
कई बार पिंजरा खुला
बाहर भी निकला पर
मन न हुआ स्वतंत्र होने का
खुले आकाश मैं उड़ने का |
मनोबल उसका कहीं खो गया
या पिंजरे से मोह हो गया
अंतिम क्षण तक वहीं रहा
नई राह न खोजी उसने |
क्या कारण था इसके पीछे ?
समझ न पाया कोई उसे
बंधन न था समर्पण था
प्यार भरा निवेदन था
कुछ वादे  उसे निभाने थे
जो उसके साथ न जाने थे |


11 दिसंबर, 2012

सह न पाई

देख बदहाली उसकी ,मन को लागी  ठेस |
प्यारा था पहले कितना ,लोक लुभावन वेश ||

साथ समय के बदल गया ,रूप रंग वह तेज |
शरीर ढांचा रह गया ,चेहरा हुआ निस्तेज ||

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सह रही झूमाझटकी ,व अपशब्दों के वार |
कटुता मन में विष भरे ,कोई नहीं उदार ||

नाते रिश्ते भूल चली ,मूढ़ मती सी होय  |
भूल गयी अपनी क्षमता ,रही अपाहिज होय ||

चुटकी भर सिन्दूर का ,मर्म न जाने कोय |
चिंता से तन मन जला बचा न पाया कोय ||

आसमान तक धुआ उठा ,रोक न पाया कोय |
ऊंची लपटें आग की ,देखत ही भय होय ||

भीड़ जो पहले उमढ़ी,कमतर होती जाए |
कौन पड़े चक्कर में ,निश्प्रह होती जाए ||

सास ससुर देवर बढ़े  ,चढे पुलिस की बेन |
फूट फूट कर रो रहे बच्चे बड़े बेचैन  ||

हुआ भयंकर हादसा ,कर जाता बेचैन |
अमानवीयता इतनी  ,क्या समाज की देन ||

आशा 
                                                            





10 दिसंबर, 2012

चित्र मन भाए

यहीं कहीं मेरा घर होता 
सब  से सुन्दर मंजर होता 
कुनकुनी धुप का मजा उठाती 
अपनी सर्दी दूर भगाती |