मेरी यादों में तू भी,
कभी रोया होगा ,
मेरी तस्वीर को,
आँसुओं से भिगोया होगा ,
पुरानी बातों का जिक्र ,
हर बार हुआ करता था ,
दिल की बातों का इज़हार ,
हो कैसे मालूम न था ,
यूँ बिछुड़ जायेंगे ,
यह सोचा न था ,
कभी ना मिल पायेंगे ,
इसका अन्दाज़ा न था ,
जब भी तेरे साये से ,
लिपट कर रोया मैं ,
सीने में उठे दर्द को ,
सम्हाल ना पाया मैं |
आशा
06 नवंबर, 2010
05 नवंबर, 2010
मन खिन्न हुआ
थी जो अपेक्षा उस पर खरे न उतरे
जाने कितने अहसान किये
पर जताना कभी नहीं भूले
संख्या इतनी बढ़ी कि
भार सहन ना हो पाया
बेरंग ज़िंदगी का एक और रूप नज़र आया
कहने को सब कुछ है पर कहीं न कहीं अंतर है
छोटी-छोटी बातों से
किरच-किरच हो दिल बिखर गया
गहरे सोच में डूब गया
वेदना ने दिये ज़ख्म ऐसे
नासूर बनते देर न लगी
अब कोई दवा काम नहीं करती
अश्रु भी सूख गये अब तो
पर आँखे विश्राम नहीं करतीं
वेदना इतनी गहरी कि
रूठा मन शांत नहीं होता
है इन्तजार उस परम सत्य का
जब काया पञ्च तत्व में विलीन होगी
झूठी माया व्यर्थ का मोह
सभी से मुक्ति मिल पायेगी
वेदना तभी समाप्त हो पाएगी |
04 नवंबर, 2010
और तुलना कैसी
तारों से दमकता आकाश
दीपावली की रात
और सतत टिमटिमाते
माटी के दीपक
घर रोशनी से चमकने लगे
मंद हवा के स्पर्श से
दिये भी धीरे-धीरे
बहकने लगे
ख़ुद पर ही
मोहित होने लगे
तारों से तुलना करने लगे |
जो बात हम में है
उन तारों में कहां
हैं मीलों दूर
हमारी चमक दमक से
और वंचित
सब के प्रेम से
प्यार हमें सब करते हैं
स्नेह से सजाते हैं
तारे तोअपने आप ही
टिमटिमाते हैं !
तारे चुप कैसे रहते
पलट वार किया बोले
है जीवन तुम्हारा
बस एक रात का
जल्दी ही बुझ जाते हो
फिर आते होअगले बरस
हम तो समस्त सृष्टि के दुलारे
रोज यहाँ आते हैं
अमावस की रात्रि को
कुछ अधिक ही सजा जाते हैं
झिलमिलाती चुनरी पहन
जब वह जाती है
बहुत आल्हादित करती है
तभी तो हमारा वर्णन
चाहे जब होने लगता है
माना कविता
तुम पर भी बनती है
पर छाए तो हम रहते हैं
रचनाकार के
मन मस्तिष्क पर |
तुम याद किये जाते
वर्ष में एक बार
हम तो जाने अनजाने
हर दिन याद किये जाते हैं |
विदीर्ण हृदय लिये दीपक
बहुत उदास हो गये
सारी रात जल ना सके
भोर से पहले ही बुझ गये |
जुगनू यह सब सुन रहे थे
बारम्बार सोच रहे थे
हम भी तो चमकते हैं
वीरानों तक को
करते गुलजार
अल्प आयु भी रखते हैं
हैं दीपक जैसे ही
अच्छा है हमसे
कोई ईर्ष्या नहीं रखता
हमारे क्षणिक जीवन का
कोई हिसाब नहीं रखता |
तारों से है क्या बराबरी
जो पूरे अम्बर पर
अधिकार जमाए बैठे हैं
उनसे हो क्यूँ तुलना
वे अपने आप में खोये रहते हैं |
सब में हैं गुण दोष कई
फिर आपस में बराबरी क्यूँ ?
और तुलना कैसी ?
आशा
02 नवंबर, 2010
हो स्वागत कैसे लक्ष्मी का
हो स्वागत कैसे लक्ष्मी का ,
अन्धकार ने घेरा है ,
तेल बाती लायें कहाँ से ,
महँगाई ने घेरा है ,
हर ओर उदासी छाई है ,
कमर तोड़ महँगाई है ,
बाजार भरा पड़ा सामान से ,
पर धन परिसीमित करना है ,
चंद लोगों ने ही त्यौहार पर,
कुछ नया खरीदा है ,
बाकी तो रस्म निभा रहे हैं ,
बेमन से पटाखे ला रहे हैं ,
बच्चों का मन रखने के लिए ,
गुजिया पपड़ी बने कैसे ,
मँहगाई की मार पड़ी है ,
खील बताशे तक मँहगे हैं ,
क्रेता का मुँह चिढ़ा रहे हैं ,
शक्कर की मिठास भी,
कम से कमतर होने लगी है ,
हर चीज फीकी लगती है ,
जब भाव उसका पूछते हैं ,
मन को कैसे समझायें ,
देना लेना सब करना है ,
कहाँ-कहाँ हाथ रोकें ,
हर बात है समझ से परे ,
पसरे पैर मँहगाई के ,
गहरा घना अंधेरा है ,
फिर भी सब कुछ करना है ,
क्योंकि यहीं रहना है ,
हर त्यौहार की तरह ,
दीपावली भी ,
मन ही जायेगी ,
पर आने वाले दो माह का ,
बजट बिगाड़ कर जायेगी |
आशा
अन्धकार ने घेरा है ,
तेल बाती लायें कहाँ से ,
महँगाई ने घेरा है ,
हर ओर उदासी छाई है ,
कमर तोड़ महँगाई है ,
बाजार भरा पड़ा सामान से ,
पर धन परिसीमित करना है ,
चंद लोगों ने ही त्यौहार पर,
कुछ नया खरीदा है ,
बाकी तो रस्म निभा रहे हैं ,
बेमन से पटाखे ला रहे हैं ,
बच्चों का मन रखने के लिए ,
गुजिया पपड़ी बने कैसे ,
मँहगाई की मार पड़ी है ,
खील बताशे तक मँहगे हैं ,
क्रेता का मुँह चिढ़ा रहे हैं ,
शक्कर की मिठास भी,
कम से कमतर होने लगी है ,
हर चीज फीकी लगती है ,
जब भाव उसका पूछते हैं ,
मन को कैसे समझायें ,
देना लेना सब करना है ,
कहाँ-कहाँ हाथ रोकें ,
हर बात है समझ से परे ,
पसरे पैर मँहगाई के ,
गहरा घना अंधेरा है ,
फिर भी सब कुछ करना है ,
क्योंकि यहीं रहना है ,
हर त्यौहार की तरह ,
दीपावली भी ,
मन ही जायेगी ,
पर आने वाले दो माह का ,
बजट बिगाड़ कर जायेगी |
आशा
01 नवंबर, 2010
ऐ दिल तुझे क्या हो गया है
ऐ दिल तुझे क्या हो गया है
गलत कदम उठाया क्यूँ
रिश्ता ऐसा बनाया क्यूँ
जो निभाना संभव न था
था नियम विरुद्ध समाज के
लोगों ने रोकना चाहा
कुछ ने तो टोका भी
तब भी सचेत ना हो पाया
और गर्त में फँसता गया
वापिस लौट नहीं पाया
बहुत व्यस्त किया स्वयं को
फिर भी भूल नहीं पाया
बार-बार वही बात, वही रोना
उसमें ही खोये रहना
अब तो दर्द भी
दिखने लगा है चेहरे पर
यह कितने दिन यूँ ही रहेगा
ना कोई दवा इसकी
और ना कोई असर इस पर
भूले से जो भूल हुई थी
यदि उसे सुधारा होता
पूरी तरह भुला दिया होता
नियंत्रण खुद पर रखा होता
तब तू यूँ बेचैन ना होता |
आशा
31 अक्टूबर, 2010
मैं लिखती हूँ तेरे लिये
सब लिखते हैं स्वयं के लिये ,
आत्म संतुष्टि के लिये ,
पर मैं लिखती हूँ तेरे लिये ,
कहीं तेरा लगाया यह पौधा ,
मुरझा ना जाये ,
तू उदास ना हो जाये ,
रोज पानी देती हूँ ,
खाद देती हूँ ,
तेरे उगाए पौधे को ,
बहुत प्यार करती हूँ ,
मुरझाये पीले पत्तों की ,
काट छाँट करती हूँ ,
बस रह जाते हैं ,
हरे-हरे नर्म-नर्म,
कोमल मखमली पत्ते ,
अब तो फूल भी आ गये हैं ,
फल की आशा रखती हूँ ,
जिस दिन पहला फल आयेगा ,
तुझे ही समाचार दूँगी ,
तेरी देखरेख बगिया की ,
व्यर्थ नहीं जाने दूँगी ,
मेहनत से नहीं डरती ,
पूरी शक्ति लगा दूँगी ,
यह पेड़ फलफूल रहा है ,
दूसरा बोने की इच्छा है ,
उन्नत बीज तुझी से मिलेगा ,
खाद पानी की जुगत करूँगी ,
तभी वह चेत पायेगा ,
दिन रात बड़े जतन से ,
उसकी भी सेवा करूँगी ,
सबसे रक्षा करूँगी ,
सुगन्धित पुष्पों से जब ,
वह भी लड़ जायेगा ,
तुझे और उन सब को ,
जो प्रोत्साहित करते हैं ,
दिल से साधुवाद दूँगी !
आशा
आत्म संतुष्टि के लिये ,
पर मैं लिखती हूँ तेरे लिये ,
कहीं तेरा लगाया यह पौधा ,
मुरझा ना जाये ,
तू उदास ना हो जाये ,
रोज पानी देती हूँ ,
खाद देती हूँ ,
तेरे उगाए पौधे को ,
बहुत प्यार करती हूँ ,
मुरझाये पीले पत्तों की ,
काट छाँट करती हूँ ,
बस रह जाते हैं ,
हरे-हरे नर्म-नर्म,
कोमल मखमली पत्ते ,
अब तो फूल भी आ गये हैं ,
फल की आशा रखती हूँ ,
जिस दिन पहला फल आयेगा ,
तुझे ही समाचार दूँगी ,
तेरी देखरेख बगिया की ,
व्यर्थ नहीं जाने दूँगी ,
मेहनत से नहीं डरती ,
पूरी शक्ति लगा दूँगी ,
यह पेड़ फलफूल रहा है ,
दूसरा बोने की इच्छा है ,
उन्नत बीज तुझी से मिलेगा ,
खाद पानी की जुगत करूँगी ,
तभी वह चेत पायेगा ,
दिन रात बड़े जतन से ,
उसकी भी सेवा करूँगी ,
सबसे रक्षा करूँगी ,
सुगन्धित पुष्पों से जब ,
वह भी लड़ जायेगा ,
तुझे और उन सब को ,
जो प्रोत्साहित करते हैं ,
दिल से साधुवाद दूँगी !
आशा
है यह कैसा व्यवसाय
है कैसा व्यवसाय
जो फल फूल रहा
कुकर मुत्ते सा
चाहे जहां दिख जाता
रहते लिप्त सभी जिसमें
ऊपर से नीचे तक |
बिना बजन के
कोई फाइल नहीं हिलती
कितनी भी आवश्यकता हो
अनुमति नहीं मिलती
हें सजी कई दुकानें
यह व्यवसाय जहां होता |
देने वाला भी प्रसन्न
लेने वाला अति प्रसन्न
पहला सोचता है
कोई व्यवधान ना आए
दूसरा इसलिए कि
नव धनाड्य हो जाए |
हें जितने लोग लिप्त इसमें
ढोल में पोल की
कड़ी बने हें
धन अधिक पा जाने पर
हर संभव पूर्ती करते हें
दबी हुई आकांक्षा की
जब भय होता
पकडे जाने का
मुंह छिपाए फिरते हें
ले कर सहारा इसका ही
बेदाग़ छूट भी जाते हें
है यह विज्ञान या कला
विश्लेषण करना है कठिन
विज्ञान में शोध होते हें
नियम सत्यापित भी होते हें
कला होती संगम भावनाओं का
मिलता नया रूप जिसे
भावनाओं से दूर बहुत
ना ही कोई नियम धरम
यह दौनों से मेल नहीं खाता
लगता सबसे अलग
इसे क्या कहें
घूसखोरी ,तोहफा या रिश्वत |
आशा
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