18 सितंबर, 2015

भाव



भाव का अविर्भाव
ऐसे ही नहीं होता
बहुत जतन  करने होते हैं
तभी निखार आता
सर्वप्रथम उसका शोधन
फिर प्रक्षालन परिवर्धन
और अंत में परिमार्जन
इतनी विपदा सहते सहते
मूल भाव तिरोहित होता
परिवर्तन इतने हो जाते
नया ही कुछ प्रगट होता
मनभावन प्रस्तुति होती
पर मूल भाव रह जाता
 किसी कौने में सिमट कर
विश्वास नहीं होता  
जो सोचा न था
 वही लिखा था |
आशा





16 सितंबर, 2015

थे अनजान


पीले पड़े पत्ते के लिए चित्र परिणाम
हुए धुप से बेहाल
पीत  पड़े पत्ते बेचारे
कशमकश में उलझे
अपनी शाखा से बिछुड़े
झड़ने लगे खिरने  लगे
प्रारब्ध से अनजान 
ना ही कोई हमराज 
हुए अनाथ इस जहां में
किसी ने न अपनाया
प्यार किया ना दुलराया
खुद को बहुत अकेला पाया
सोचने का समय न था
वायु वेग के   साथ हुए
अनजान  डगर तक जा पहुंचे
थकने लगे तरसने लगे
 विराम की आकांक्षा  लिए
ढलान पर सम्हल न पाए
फिसल गए  खाई तक पहुंचे
थे चोटिल आहात
स्थिर भी न हो पाए
जाने कब स्वांस रुकी
जीवन का मोह भंग हुआ
आश्चर्य तो तब  हुआ
कौन थे कहाँ से आये
क्या चाहत थी उनकी
कोई निशाँ तक न छोड़ा 
इस दुनिया से नाता तोड़ा |

आशा

14 सितंबर, 2015

उदासी


शमा जलती
 महफिलें सजतीं
 पर न जाने क्या
 मन में चुभता
उदासी का मुखौटा
उतरना न चाहता
खुशी से परहेज रहता
चांदनी की चूनर ओढ़
 स्वप्न  कभी सजाए थे
तारों भरी रात में
जो लम्हें बिताए थे
निगाहों में ऐसे बसे
आज भी सता रहे हैं
उत्पात मचा रहे हैं
पेड़ों से छन छन कर
आती चांदनी ने
 राह खोज ही ली थी 
चाँद की  अटखेलियाँ
 जल की चंचल लहरों से
आज भी वही हैं
कोई भी बदलाव नहीं
 पर परिवर्तन है  उसमें
सोच बदल गया है
ठहराव आ गया  है  
घूमना शबनमी रात में
 बहुत सुकून देता था तब
पर अब नहीं
प्यार भरी अदाओं से
शरारती निगाहों से
हाथों से मुंह छिपाना
बांह  छुड़ा दूर जाना
लुका छिपी तब की
आज भी न भूल पाती
खुद को अधूरा पाती
किसी की भी नज्म हो
खोई खोई रहती है
दाद भी न दे पाती
उदासी बढ़ती जाती |
आशा