09 अक्टूबर, 2010

लक्ष्मण रेखा

क्यूं बंद किया
लक्ष्मण रेखा के घेरे मै
कारण तक नहीं समझाया
ओर वन को प्रस्थान किया
यह भी नहीं सोचा
मैं हूँ   एक मनुष्य 
स्वतन्त्रता है अधिकार
यदि आवश्कता हुई
अपने को बचाना जानती
पर शायद यहीं मै गलत थी
अपनी रक्षा कर न सकी
 बचा न सकी खुद को रावण से
मैं कमजोर थी अब समझ गयी हूं
यदि तुम्हारा कहा सुन लिया होता
अनर्गल बातों से दुखित तुम्हें न किया होता
दहलीज पार न करती
हा राम हा राम कि आवाज सुन
राम तक पहुंचने के लिए
कष्ट मैं उन को  देख
सहायतार्थ जाने के लिए
तुम्हें बाध्य ना किया होता
मैं लक्ष्मण रेखा पार नहीं करती
रावण को भिक्षा देने के लिए
दहलीज  पार न करती
यह दुर्दशा नहीं होती
विछोह भी न सहना पड़ता
अग्नि परीक्षा से न गुजरना पड़ता
धोबी के कटु वचनों से
मन भी छलनी ना होता
क्या था सही ओर क्या गलत
अब समझ पा रही हूं
इसी दुःख का निदान कर रही हूं
धरती से जन्मी थी
फिर धरती में समा रही हूं |
आशा

08 अक्टूबर, 2010

था वह मेरा अतीत

जाने कहां खो गया ,
मेरी छाया से भी दूर हो गया ,
जब तक लौट कर आएगा,
बहुत देर हो जाएगी ,
मुझे क्या पहचान पाएगा ,
है वह मेरा अतीत ,
जिसने मिलना भी ना चाहा ,
वर्तमान में भी उसे,
मेरी याद नहीं आई ,
है यह कैसी रुसवाई ,
मेरा समर्पण याद नीं आया ,
ख्यालों की दुनिया सीमित की ,
खुद ही तक सीमित रहा ,
मेरा ख्याल नहीं आया ,
सीमाएं छोड़ नहीं पाया ,
खोया रहा अपने में ,
मुझे अधर में लटकाया ,
था वह मेरा अतीत ,
जुड़ा हुआ था बचपन से ,
यदि वर्त्तमान में भी होता ,
दुःख मुझे कभी ना होता ,
मैं उसी तरह प्यार करती ,
अपनाती स्नेह देती ,
खोया हुआ जब भी मिलता ,
अपनेपास छिपा लेती ,
पर वह मुझे समझ ना पाया ,
वफा का मोल न कर पाया ,
यदि वह पहचान लेता ,
कुछ तो मेरा साथ देता ,
गैरों सा व्यवहार न करता ,
मेरे साथ न्याय करता |
आशा

07 अक्टूबर, 2010

प्रतिमा सौंदर्य की

प्रातः से संध्या तक ,
वह तोड़ती पत्थर ,
भरी धुप मै भी नहीं रुकती ,
गति उसके हाथों की ,
श्रम कणों की अपूर्व आभा ,
दिखती मुख मंडल पर ,
फटे कपड़ों में लिपटी लाज की गठरी सी ,
लगती है किसी शिल्पी की अनोखी कृति सी ,
महनत से बना सुडौल तन
छन छन कर झांकता अल्हड़ यौवन,
सावला सलोना रंग ,
है वह अनजान अपने रूप से ,
वह भोलापन और आकर्षण ,
ओर सुराही सी गर्दन ,
जो सजी है ,कच्चे कांच के
मनकों की माला से ,
वह जैसे ही झुकती है तगारी उठाने के लिए ,
भंगिमा उसकी लगती प्रस्तर प्रतिमा सी ,
लगता है वह,
इतना वजन कैसे उठा पाएगी ,
तगारी रख सिर पर सरलता से ले जाती है ,
उसका मुखर होना हंसना ओर गुनगुनाना ,
विस्मृत कर देता है ,
फटे कपड़ों में छिपे तन को ,
लगने लगती है ,
स्वर्ग की किसी अप्सरा सी ,
आकृष्ट करती अपनी सुंदरता से ,
जो देन है प्रकृति नटी की ,
चाहता उसे अपलक निहारना ,
अप्रतिम सौन्दैर्यकी मिसाल समझ ,
उसके सम्मोहन में खो जाना ,
सरलता सहजता और भोलापन ,
भराहुआ है कूट कूट कर ,
मजदूरी मिलते ही चेहरे पर भाव,
संतुष्टि का आता है ,
सारी थकान भूल चल देती है डेरे पर ,
पुनः सुबह होते ही काम पर आ जाती है ,
महनत का दर्प चेहरे पर लिए ,
नया उत्साह मन में लिए |
आशा

06 अक्टूबर, 2010

तुम सामने क्यूँ नहीं आते

तुम सामने क्यूँ नहीं आते ,
मुंह छुपाए रहते हो ,
रातों की नींद ,
चुरा लेते हो ,
यह सजा रोज,
क्यूँ देते हो ,
सपनों में कई रंग ,
दिखाते रहते हो ,
होते ही सुबह ,
मैं व्यस्त हो जाती हूं ,
अपने आप में ,
खो जाती हूं ,
अक्सर भूल जाती हूं ,
क्या क्या देखा रात्रि में
कुछ बातें ही,
याद रह पाती हें ,
मिलते लोग ,
जो स्वप्नों में ,
दिन में भी ,
दिखाई देते हें ,
आदान प्रदान विचारों का ,
उनसे भी होजाता है ,
क्यूँ कि वे,
परिचित होते हें ,
पर तुम्हारे साथ,
ऐसा नहीं है ,
हर रात तुम आते हो ,
ना जाने हो कौन ,
मुझे बेचैन,
कर जाते हो ,
तुम्हें पहचान नहीं पाती ,
सोचती हूं ,
पर याद नहीं आते ,
किस बात की सजा ,
हर बार मुझे देते हो ,
हूं यदि दोषी तुम्हारी ,
तो सजा देने,
ही आजाओ ,
मुझे अपने स्वप्नों से ,
मुक्त तो कर जाओ ,
कभी लगता हैमुझे ,
अचेतन मन की ,
उपज तो नहीं ,
जिसमे कई स्मृतियां
दबी होती हें ,
जब रात्रि में होताहै ,
वह सक्रीय ,
विस्मृतियाँ होती सजीव ,
कहीं तुम उनमें से,
एक तो नहीं |
आशा

05 अक्टूबर, 2010

कवि

रहता भावना के समुद्र में ,
जीता स्वप्नों की दुनिया में ,
गोते लगाता ,
ऊपर नीचे विचारों में ,
सुख हो या दुःख ,
उन्हें दिल से लगाये रहता ,
संबल ह्रदय का देता ,
कैसी भी छबी क्यूँ ना हो ,
ह्रदय में उतार लेता ,
शब्द जाल बुनता रहता ,
वह स्वयं नहीं जानता ,
जानना भी नहीं चाहता ,
वह कहाँ खोया रहता है ,
किस दुनिया में रहता है ,
जैसे स्वप्न रंगीन होते हें ,
तो कभी बेरंग भी ,
जीवन उसका भी होता है ,
कभी रंगीन,
तो कभी बे रंग ,
सामान्य बहुत कम रहता है ,
मन की बात किसी से,
कहना भी नहीं चाहता ,
किसी से बांटना भी नहीं चाहता ,
होती अधिक अकुलाहट जब ,
एकांत में घंटों ,
गुमसुम बैठा रहता है ,
अपने में खोया रहता है ,
एकाएक उठता है,
लिखना प्रारम्भ करता है ,
नयी कविता का ,
सृजन करता है ,
कुछ होती ऐसी ,
जो दिल को छू जाती हें ,
पर कुछ तो ,
सर पर से गुजर जाती हें ,
उसे समझना सरल नहीं ,
होता व्यक्तित्व दोहरा उसका ,
लेखन में कुछ झलकता है ,
और वास्तव में ,
कुछ और होता है ,
आकलन ऐसे व्यक्तित्व का ,
कैसे किया जाए ,
परिभाषित 'कवि 'शब्द को ,
कैसे किया जाए ||
आशा

04 अक्टूबर, 2010

सहनशीलता

सरल नहीं सहनशील होना ,
इच्छा शक्ति धरा सी होना ,
है धरती विशाल फिर भी ,
नहीं दूर अपने कर्त्तव्य से ,
सतत परिक्रमा करती सूर्य की ,
फिर भी नहीं थकती ,
देता है शीतलता उसे चंद्र ,
पर आदित्य से डरता है ,
जैसे ही उसे देखता है ,
जाने कहां छिप जाता है ,
गर्मी सर्दी और वर्षा ,
सभी सहन करती है ,
जन्म से आज तक ,
धधकती आग ,
हृदय में दबाए बैठी है ,
जलनिधि रखता,
सारा बोझ उसी पर ,
वहन उसे भी करती है ,
चांद सितारों की बातें की सबने ,
पर उसे किसी ने नहीं जाना ,
ना ही ठीक से पहचाना ,
जब कभी विचलित होती है ,
हल् चल उसमें भी होती है ,
ज्वालामुखी धधकते हें ,
क्रोध प्रदर्शित करते हें ,
वह अशांत सी हो जाती है ,
वह फिर यह सोच,
शांत हो जाती है ,
जो जीव यहां रहते हें ,
उसके आश्रय में पलते हें ,
आखिर उनका क्या होगा ?
उस जैसा धीर गंभीर होना ,
इतना सरल नहीं है ,
सहनशीलता उसकी अनोखी ,
जो अनुकरणीय है |
आशा |

03 अक्टूबर, 2010

वह नहीं जानता ,

अनेक दर्द दिल में छिपाए उसने ,
है ऐसा क्या उन में ,
बांटने से भी डरता है ,
उन पर चर्चा,
से भी हिचकता है ,
कई बार लगता है ,
बांटने से दिल का बोझ ,
किसी हद तक कम हो सकता है ,
पर यदि वह ना चाहे ,
कोई क्या कर सकता है ,
शायद वह नहींसीख पाया ,
मिलजुल कर रहने की आदत ,
नहीं पहचान पाया ,
जीवन में उसकी जरूरत ,
यही कारण दीखता है ,
किसी से साँझा नही करता ,
खुद भी अकेला रहता है ,
गम के दरिया में बहता रहता है ,
उदासी पीछा नहीं छोडती ,
वीरान जिंदगी लगती है ,
आवश्कता मित्रों की ,
महत्व उनके होने का ,
जब वह समझ पाएगा ,
विचारों का सांझा करेगा ,
तब बोझ दिल पर ना होगा ,
मित्रों में बात जाएगा ,
वह प्रसन्न रह पाएगा |
आशा