16 मई, 2015

तृष्णा


सुख दुःख का है खेल जिन्दगी
धूप छाँव का मेल जिन्दगी
दुःख से दूरी सभी चाहते
सुख के सपनों में खो जाते |
नशा सुख का मद में बदलता
अहंकार भी बढ़ने लगता
मदहोशी जब बढ़ती जाती
लिप्त उसी में हो  रहते |
सोच संकुचित होने लगता
प्रत्येक वस्तु का मोल लगाते
गरूर जब  पैसे का  होता
रंग रलियों में होते  लिप्त  |

आधुनिकता की दौड़ में
कैसे पीछे रह जाते
छीन झपट धन संचय करते
पर आत्मसंतोष नहीं पाते |
और अधिक पाने की चाह में
झूठ  की दुकान लगाते
उससे जब मन भर जाता
मनमानी करने लगते 
बेईमानी पर उतर आते |
आशा





15 मई, 2015

प्यास न बुझी

 

.कारे बदरा
जल के संचायक
बरस जाते |

आसमान में
घर समझ लिया
बदरवा ने |

जलाभिषेक
करने आ गए
 बादल काले |





मीत बावरा
अधीर होने लगा
न पा उसको |

धरती सूखी
जल के अभाव में
प्यास न बुझी |
आशा

13 मई, 2015

भावों के समुन्दर में


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भावों के समुन्दर में   
डुबकी लगाने की चाह में
घंटों से खडा था  
पर कदम नहीं बढ़ते
साहस नहीं जुटता
उर्मियों की तीव्र गति
वहां जाने नहीं देती
जैसे ही पैर बढाता  
बापिस ढकेल देती
चाहत डुबकी लगाने की
अनमोल रत्न खोजने की
उन्हें तराशने चमकाने की
बाधित सी हो जाती
तभी एक विकराल लहर
पैरों से टकराई
वे उखड गए
मैं घबराया पर सम्हला
और बह चला संग उसके
सागर की थाह पाने को
अब उत्साह है गर्मजोशी है
भावों का संग्रह जब होगा
सांझा करने का यत्न करूंगा |
आशा