28 नवंबर, 2014

उन्नयन


 

उलझे उलझे से बाल
लिए विचारों का सैलाव
पहना आधुनिक लिवास
कैसे उसे कोई पहचाने
समय बदला वह बदली
झूठा मुखौटा  ओढ़ा
समय के साथ चली
फिर भी कसक रही मन में
किसने बाध्य किया
 इस परिवर्तन के लिए
पहले थी वह सुप्त
देख समाज की ओर
भ्रमित होती  रही
 खुद में ही सिमटी रही
अब उसने खुद को पहचाना
नारी के महत्व को जाना
आज है वह समर्थ

सजग सक्षम सचेत

नहीं कमतर किसी से

कुछ करने की अभिलाषा
मन में सजोए है
 यह है एक  कहानी
नारी में आए  परिवर्तन की
उसके उन्नयन की | 
आशा








 


26 नवंबर, 2014

द्वन्द मन का




                                                                                                                                                                                                                   चाहत है नन्हां होने की

बरगद का पेड़ नहीं   

बोंजाई  होना चाहता

वट  वृक्ष नहीं


आते जाते सभी


 जिसे देख खुश होते


घर की रौनक बढ़ जाती


 जब उसका रूप निरखते


 प्रकृति के कोप से बचता


 मंद पवन को मित्र बनाता


नन्हा बचपन लौट आता


 जीवन सुखकर होता

मन में  है उथलपुथल

 वर्तमान या बचपन 

गुत्थी सुलझ नही पाती 

मन में रहती उलझन

वर्तमान भी क्या बुरा है

 रहता है अपनी मर्जी से

आश्रित नहीं किसी का 

मालिक अपनी मर्जी का

जो भी मिला बहुत अच्छा है

 और अधिक की चाह नहीं

फिर क्यूं जरूरत आन पडी

 नन्हा बच्चा बनने की

कारण एक जान पाया

 बचपन तो बचपन है

ना कोई चिंता ना समस्या 

जीवन का संचित धन है 

फिर ख्याल आता 

वर्तमान भी क्या कम है

इसका अलग ही आनंद है

बचपन मात्र  कल्पना है

 वर्तमान  ही अपना है | 
आशा