28 अप्रैल, 2012

बांसुरी

प्राण फूंके कान्हां ने 
बांस की पुगलिया में
बाँसुरी बन कर बजी
ब्रज मंडल की गलियों में
अधरामृत से कान्हां के
 स्वर मधुर उसके हुए
गुंजित हुए सराहे गए
कोई सानी  नहीं उनकी
गोपियाँ खींची चली आतीं
उसकी स्वर लहरी पर
सुधबुध खो रास रचातीं
कान्हां पर बलि बलि जातीं
जमुना तट पर कदम तले
मोह देख कान्हा का
उस बांस की पोंगली से
राधा  जली ईर्ष्या से भरी
बरजोरी की कन्हैया से
छीना उसे और छिपा आई
हाथ जोड़ मिन्नत करवाई
तभी बांसुरी लौटाई
उसे देख कान्हां के संग
ईर्ष्या कम ना हो पाई
वह सौतन सी  नजर आई |
आशा 





25 अप्रैल, 2012

लीन विचारों में




कुछ उलझे से लीन विचारों में
  गर्दन नीची कर बढ़ते
भेड़ों के झुण्ड में जाती एक भेड़ से
चरते सूखी घास पीछे मुड़ नहीं पाते
 सोच  समझ भी खो देते
 उस भेड़ चाल में
 हो  विद्रोही सहनशीलता तज देते
 पर  कभी मेमने के स्वर से
कानों में मिश्री घोलते
अस्थिरता मन की बढ़ती जाती
सुख शान्ति चैन  सब हर लेती 
कुंद बुद्धि होती जाती
जाने वह दिन कब होगा
समृद्धि की बयार बहेगी
जिंदगी सही पटरी पर होगी
लेखनी अवरूद्ध ना होगी
हैं जाने कैसे लोग
कथनी और करनी की
खाई पाट  नहीं पाते
लिखते हैं बहुत कुछ
पर मनोभाव तक पढ़ न पाते
सीमा साहित्य की छू नहीं पाते
नया सोच नई विधाएं अपनाते
क्या बदलाव ला पाएंगे
दर्पण समाज का बन पाएंगे
विष बेल विषमता की
समूल नष्ट कर पाएंगे
जाने कब परिवर्तन होगा
भेड़ चाल से पा छुटकारा
लिखने की स्वतंत्रता होगी
वर्तनी समाज का दर्पण होगी |
आशा


22 अप्रैल, 2012

उसे क्या कहें

मखमली दुर्वा को गलीचा समझ 
की अटखेलियाँ किरणों से 
फिर भी गहरी उदासी से 
मुक्ति ना मिल पाई 
निहारता दूर क्षितिज में
नेत्र बंद से होने लगते 
 खो जाता दिवा स्वप्न में 
सत्य से बहुत दूर 
नहीं चाहता कोई कुछ कहे 
है वह क्या ?आइना दिखाए 
कठिनाइयों से भेट कराए 
भूले से यदि हो सामना 
निगाहें चुराए मिलना ना चाहे
या फिर आक्रामक रुख अपनाए 
कैसे  बीता कल भूल गया 
ना ही चाहता जाने 
होगा क्या कल 
प्रत्यक्ष से भी दूर भागता 
ऐसे ही जीना वह चाहता 
उसे क्या कहें |
आशा