कुछ उलझे से लीन विचारों में
गर्दन नीची कर बढ़ते
भेड़ों के झुण्ड में जाती एक भेड़ से
चरते सूखी घास पीछे मुड़ नहीं पाते
सोच समझ भी खो देते
उस भेड़ चाल में
हो विद्रोही सहनशीलता तज देते
पर कभी मेमने के स्वर से
कानों में मिश्री घोलते
अस्थिरता मन की बढ़ती जाती
सुख शान्ति चैन सब हर लेती
कुंद बुद्धि होती जाती
जाने वह दिन कब होगा
समृद्धि की बयार बहेगी
जिंदगी सही पटरी पर होगी
लेखनी अवरूद्ध ना होगी
हैं जाने कैसे लोग
कथनी और करनी की
खाई पाट नहीं पाते
लिखते हैं बहुत कुछ
पर मनोभाव तक पढ़ न पाते
सीमा साहित्य की छू नहीं पाते
नया सोच नई विधाएं अपनाते
क्या बदलाव ला पाएंगे
दर्पण समाज का बन पाएंगे
विष बेल विषमता की
समूल नष्ट कर पाएंगे
जाने कब परिवर्तन होगा
भेड़ चाल से पा छुटकारा
लिखने की स्वतंत्रता होगी
वर्तनी समाज का दर्पण होगी |
आशा
जाने कब परिवर्तन होगा
जवाब देंहटाएंभेड़ चाल से पा छुटकारा
लिखने की स्वतंत्रता होगी
वर्तनी समाज का दर्पण होगी |
बहुत सुंदर प्रस्तुति,..प्रभावी रचना,..
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: गजल.....
उस क्रांतिकारी परिवर्तन की प्रत्याशा तो हम सभी को है ! बहुत ही सार्थक रचना ! अति सुन्दर !
जवाब देंहटाएंसारगर्भित रचना ।
जवाब देंहटाएंक्या बात है!! बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंइसे भी देखें-
फेरकर चल दिये मुँह, था वो बेख़ता यारों!
आईना अब भी देखता है रास्ता यारों!!
वाह बहुत खूब ...........असमंजस की स्तिथि हर जगह बनी हुई हैं
जवाब देंहटाएंवाह ... बहुत ही बढिया
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया उम्दा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंबहुत सही आंकलन हाँ ये सच है कि इंसान की चाल बिल्कुल भेडो जैसी है मतलब भेडचाल एक के पीछे एक अपनी कोई सोच नहीं बदलाव लाने की सोच ही उसके अंदर डर भर देती है नए को धारण करने से पहले ही घबरा जाना इस चाल को बदलना होगा तभी विकास संभव है बहुत खूबसूरत रूप और सुन्दर सोच से लिखी खूबसूरत रचना |
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