01 सितंबर, 2017

रेल हादसा

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कितना कुछ पीछे छोड़ चली 
जीवन की रेल चली !
एक स्टेशन पीछे रह गया 
अगला आने को था 
पेड़ पीछे भाग रहे थे 
बड़ा सुहाना मंज़र था !
रात गहराई और सब खो गए 
नींद की आगोश में सारे यात्री सो गए !
एकाएक हुआ धमाका 
रेल रुकी धमाके से 
बिगड़ी जाने कैसी फ़िज़ा
मन में खिंचे सनाके से ! 
आये कई डिब्बे आग की चपेट में 
कई पटरी से उतर गये 
चीत्कार, हाहाकार सुनाई दिया 
यात्रियों के परिजन और सामान 
यहाँ वहाँ बिखर गए ! 
यहाँ से वहाँ तक 
घायल ही घायल 
खून का रेला थमने का नाम न ले 
भय और आशंका ऐसी सिर चढी 
कि कैसे भी उतरने का नाम न ले ! 
लोग घायलों की भीड़ में 
अपनों को खोजते रहे 
घुप अँधेरे में गिरते पड़ते 
यहाँ वहाँ दौड़ते रहे !
था पास एक ग्राम 
वहीं से लोग दौड़े चले आये 
जिससे जो बन पड़ा 
घायलों की मदद के लिए 
अपने साथ लेते आये !
आग पर काबू आता न था 
घायलों का चीत्कार थमता न था ! 
जब तक अगले स्टेशन से 
मदद आती उससे पहले ही 
सब जल कर राख हो गया 
जाने कितनों का सुख भरा संसार 
हादसे की भेंट चढ़ 
ख़ाक हो गया !
ट्रेन में बैठने के नाम से ही 
अब तो जैसे साँप सूँघ जाता है
  वह दारुण दृश्य और करुण क्रंदन 
अनायास ही कानों में 
गूँज जाता है ! 

आशा सक्सेना 




27 अगस्त, 2017

मेरी सोनचिरैया

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चिड़िया दिन भर आँगन में चहकती 
यहाँ वहाँ टहनियों पे 
अपना डेरा जमाती 
कुछ दिनों में नज़र न आती 
पर शायद उसका स्थान 
मेरी बेटी ने ले लिया है 
जब से उसने पायल पहनी 
ठुमक ठुमक के चलती 
पूरे आँगन में विचरण करती 
अपनी मीठी बातों से 
मन सबका हरती 
खुशियाँ दामन में भरती ! 
उसमें और गौरैया में 
दिखी बहुत समानता 
गौरैया कहीं चली गयी 
अब यह भी जाने को है 
अपने प्रियतम के घर 
इस आँगन को सूना कर 
पर याद बहुत आयेगी 
न जाने लौट कर 
फिर कब आयेगी ! 


आशा सक्सेना