कितना कुछ पीछे छोड़ चली
जीवन की रेल चली !
एक स्टेशन पीछे रह गया
अगला आने को था
पेड़ पीछे भाग रहे थे
बड़ा सुहाना मंज़र था !
रात गहराई और सब खो गए
नींद की आगोश में सारे यात्री सो गए !
एकाएक हुआ धमाका
रेल रुकी धमाके से
बिगड़ी जाने कैसी फ़िज़ा
मन में खिंचे सनाके से !
आये कई डिब्बे आग की चपेट में
कई पटरी से उतर गये
चीत्कार, हाहाकार सुनाई दिया
यात्रियों के परिजन और सामान
यहाँ वहाँ बिखर गए !
यहाँ से वहाँ तक
घायल ही घायल
खून का रेला थमने का नाम न ले
भय और आशंका ऐसी सिर चढी
कि कैसे भी उतरने का नाम न ले !
लोग घायलों की भीड़ में
अपनों को खोजते रहे
घुप अँधेरे में गिरते पड़ते
यहाँ वहाँ दौड़ते रहे !
था पास एक ग्राम
वहीं से लोग दौड़े चले आये
जिससे जो बन पड़ा
घायलों की मदद के लिए
अपने साथ लेते आये !
आग पर काबू आता न था
घायलों का चीत्कार थमता न था !
जब तक अगले स्टेशन से
मदद आती उससे पहले ही
सब जल कर राख हो गया
जाने कितनों का सुख भरा संसार
हादसे की भेंट चढ़
ख़ाक हो गया !
ट्रेन में बैठने के नाम से ही
अब तो जैसे साँप सूँघ जाता है
वह दारुण दृश्य और करुण क्रंदन
अनायास ही कानों में
गूँज जाता है !
आशा सक्सेना
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Your reply here: