18 जुलाई, 2020

क्या बड़ी भूल कर बैठी है






छूने लगी है  हर   सांस
 तुम्हारी धड़कनों को
जीने का है मकसद क्या ?
 यह तक न सोच पाई |
 की इतनी जल्द्बाजी
 निर्णय लेने  में
स्वप्नों में वह कल्पना भी
 बुरी नहीं लगती थी |
उससे उबर भी न पाई थी
कि सच्चाई सामने आई
पर  वास्तविकता से
 सामना इतना  सरल नहीं है
 उस पर  यदि विचार करो  |
सच्चाई छुप नहीं पाती
जब झूट का सहारा लेती
तभी  तो सिर उठाती है
उबाऊ जीवन के बोझ के  
आगे आगे चलती है |
किसी और के  मुखोटे को
अपने मुह पर  लगा कर 
उसे ही अपना मान कर
 क्या बड़ी भूल कर बैठी है ?
आशा


17 जुलाई, 2020

वर्षा के रंग (हाईकू )

१-वर्षा जल की
झड़ी लगी भादों की
तन भिगोती
२-कितने मीठे
कोयल के स्वर हैं
मीठे आम से
३- दादुर बोले
तलैया के समीप
करते आकृष्ट
४-नाचता मोर
छम छम करके
प्रिया के लिए
५- पपीहा बोले
कानों में रस घोले
अनमोल है
६-सूखा सावन 
वर्षा को तरसा 
मन हर्षाया |

                                                                             आशा

16 जुलाई, 2020

कोरोना से जंग

                                      तेरी हर आहट पर
अब नहीं  चौंकती  
 कोरोना डरा नहीं मुझको
मैं हूँ क्या तू नहीं जानता|
मुझे सभी युक्तियाँ 
 मालूम हो गई हैं
तुझसे छुटकारा पाने की
मैंने भी कच्ची गोलिया 
नहीं खेली हैं
जो तुझसे भयभीत रहूँ|
मास्क पहन कर रखती हूँ
आते जाते करती हूँ
  हस्त प्रक्षालन  
व्यर्थ बाहर नहीं घूमती
सभी को  सेनेटाईज करती हूँ|
 सावधानियां पूरी  बरतती  हूँ
लोगों  से उचित
  दूरी  रख कर
दूकान पर पग धरती हूँ|
घर से तभी निकलती हूँ
 जब हो अति आवश्यक
अनावश्यक सामान 
एकत्र नहीं करती|
भूखों  का भी
 ख्याल  रहता मुझे
अन्न दान में योगदान
 कभी कभी करती हूँ|
नहीं हूँ इतनी सक्षम कि  
आर्थिक मदद कर पाऊँ
पर मन  संकुचित नहीं
फिर भी जरूरत पड़ने पर  
इनकार नहीं करती|
यथा संभव सहायता
 ही रहता उद्देश्य मेरा
 ए कोरोना भाग जा 
मेरे देश को मुक्ति दिला |
इतना सताया है बहुत हुआ
 अब और नहीं
तेरा नामोनिशान 
भी मिट जाएगा
दुनिया के परदे से|
कोई  नामलेवा भी
 न रहेगा तेरा
 ओ कोरोना दुश्मन देश के 
   तुझे अब  अलबिदा |
आशा

15 जुलाई, 2020

धरती सब के लिए एक सामान






दोपहर में गर्म धरा पर रखते ही कदम
एहसास हुआ कदमों के जलने का
सोचा लोग भी तो कार्य करते है
 नंगे पैर तपती दोपहर में |
क्या वे बचे रहते हैं सूर्य की तपिश से ?
जब वे सहन कर सकते है उसे
 फिर मैं क्यूँ नहीं ?
क्या फर्क है दौनों  में ?
क्या इस लिए कि वे  इसी धरती से जुड़े हुए हैं
पर  मुझे गलतफहमी है
 कि मेरे पैर  जमीन पर टिक नहीं पाते
शायद मुझे पाला गया है बड़ी नजाकत से |
थी सच में मुझे बड़ी भ्रान्ति कुछ विशेष तो है मुझमें
पर जब सख्त तपती बंजर  धरा पर कदम पड़े
सारी गफलत दूर हो गई
जान गई  मैं भी हूँ उनमें से एक |
बस फर्क है इतना कि
 वे हैं मेंहनतकश व्  जुझारू
बंजर धरती पर खेले बड़े हुए
छोटी मोटी चोट से भयभीत नहीं हुए |
 मैं रही घर में  मौम की गुडिया सी
ठण्ड से बचती बचाती वर्षा में भीग जब जाती
बदलते मौसम का वार तक सहन न कर पाती
अपने को कठिन कार्य में अक्षम पाती |
                                               आशा

14 जुलाई, 2020

हरे पत्ते अटखेलियाँ करते सूर्य रश्मियाँ से





जब सूर्य की  रश्मियाँ नृत्य करतीं
हरे भरे वृर्क्षों पर वर्षा ऋतु में
उगे  हरे पत्ते  मखमली लगते
सूर्य किरणों से हुई आशिकी जब 
अद्भुद समा हो जाता  |
कभी इधर कभी उधर
जहां स्पर्श होता उनका
आपस में अटखेलियां  करते
उनकी खिलखिलाहट का
छुअन का  आभास होता |
अजीब सी सरसराहट होती
मंद पवन के झोंके से जब
 मिलते आपस में पत्ते
सूर्य रश्मियों में नहाए होते  
कोई इतना भी करीब हो सकता है
ऐसा एहसास जाग्रत होता |
इस सुनहरी आभा को देखते रहने का 
मनोरम  दृश्य को  मन में सजोने का
उसे दिल में बसाने का
फिर दिल में झांकने का 
 कई  बार प्रलोभन होता
 हर बार मन होता उसी दृश्य को 
 बार बार  जीवंत करने का |
                                                आशा