जब सूर्य की रश्मियाँ नृत्य करतीं
हरे भरे वृर्क्षों पर वर्षा ऋतु में
उगे हरे पत्ते मखमली लगते
सूर्य किरणों से हुई आशिकी जब
अद्भुद समा हो जाता |
कभी इधर कभी उधर
जहां स्पर्श होता उनका
आपस में अटखेलियां करते
उनकी खिलखिलाहट का
छुअन का आभास होता |
अजीब सी सरसराहट होती
मंद पवन के झोंके से जब
मिलते आपस में पत्ते
सूर्य रश्मियों में नहाए होते
कोई इतना भी करीब हो
सकता है
ऐसा एहसास जाग्रत होता |
इस सुनहरी आभा को देखते रहने का
मनोरम दृश्य को मन
में सजोने का
उसे दिल में बसाने का
फिर दिल में झांकने का
कई
बार प्रलोभन होता
हर बार मन होता उसी दृश्य को
बार बार जीवंत करने का |
आशा
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (15-07-2020) को "बदलेगा परिवेश" (चर्चा अंक-3763) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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सूचना हेतु आभार सर |
हटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार सर |
बहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनुराधा जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंबहुत बढ़िया सुन्दर, सार्थक एवं सारगर्भित प्रस्तुति ! बहुत अच्छी रचना ! !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |