ये घुंघरू बंधन पैरों के
ना पहले बजे ना आज
डाले गए पायलों में
फिर भी बेआवाज
हें ना जाने क्यूँ मौन ?
शायद इसलिए कि
पहनने वाली भी रहती मौन
भाग्य सराहा जाता उसका
होती चर्चा रूप की
सजे पैर पायलों से
यूँ तो आकर्षित करते
घुँघरू तब भी रहते मौन
कोई नहीं जानता
मुराद उसके मन की
रहती सदा अपूर्ण
निराशा ने डेरा डाला
उदासी से पड़ा पाला
है परकटे पक्षी सी
कैद चार दीवारी में
उड़ नहीं सकती
है परतंत्र इतनी
मन की कह नहीं सकती
सोच नहीं पाती
घर के बाहर भी
है एक और जहाँ
ग़मों के अलावा भी
हैं खुशियाँ वहाँ
प्रारब्ध का यह खेल कैसा
या फल अनजाने कर्मों का
सब को सहन करना
आदत सी हो गयी है
ओढ़े आवरण दिखावे का
दिन तो कट ही जाते हैं
है यह कैसा बंधन
लोग ऐसे भी जी लेते हैं |
asha