15 अगस्त, 2020

कर्तव्य हमारा


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स्वतंत्रता हांसिल हुई बड़ी कुर्वानियों से
जिसे अक्षून्य रखना है कर्तव्य हमारा
इससे मुंह मोड़ना कहलाता है देश द्रोह
इससे बचे रहना है सौभाग्य हमारा |
तीनों रंग तिरंगे के बीच में चौबीस शलाखाएं
है अद्भुद रंग राष्ट्र ध्वज का
जब फहराया जाता लहराता व्योम में
होता है गर्व का अनुभव हमें |
सर फक्र से झुकता है बार बार
मन नमन करता है राष्ट्र ध्वज को
उसकी गरिमा को शतशत नमन
हर बार  कर्तव्य का एहसास दिलाता है | 
आशा

दिन चिंता का







 लंबित कई दिन का कष्ट
अब रोज का आराम
चिंता मुक्त हो गए हो
 हुआ चंचल  मन शांत |
बेचैनी कहाँ खो गई
जान नहीं पाई
प्रभू से की थी  प्रार्थना
ऐसे दिन किसी को न दिखाए |
हुए हो  रोग मुक्त
परहेज ही करना है
समय पर सब कार्य हो
बस यही ध्यान रखना है |
                                ईश्वर की अनुकम्पा से
ठीक समय पर चेते
यह समस्या भी  हल हो गई है
प्रभु की असीम कृपा रही है |
अपने कुंद मन को शांत रखूँ  
कठिन दौर से गुज़री हूँ
वह भी बीत जाएगा  
अब सोच पा रही हूँ |
जीवन की सच्चाई से
पहली बार सामना हुआ है
अब सत्य से मुखातिब हूँ
प्रभु ने रक्षा की  है |
आशा

13 अगस्त, 2020

आत्मनिर्भरता


है वह  बहुत खुशनसीब कि
 तुमने साथ उसका हर कदम पर दिया है
उसे  आत्म निर्भर बनाने का
 तुमने बीड़ा उठा उसे  संबल दिया है |
हर कार्य जो कठिन लगता था कभी  
सरलतम हल निकाल दिया जाता 
सफलता को छूने का मार्ग दिखा  
उसका  मनोबल बढ़ाया  जाता था  |
 जब कदम उसने कठोर धरा पर रखे   
  है आत्म निर्भरता का  महत्व क्या?
  अब हुआ एहसास हुई जब वह  आत्मनिर्भर 
 सफल जीवन जीने के राज का हल  निकला है |
हो जब आत्मनिर्भर कोई भी समस्या आए
घबराहट से कोसों दूर रह जीने की ललक जागे
आत्मबल जाग्रत हो गर्व से सर उन्नत हो
कठिनाई छूने का नाम न ले  
 कोसों दूर  भागे |
आशा
  

11 अगस्त, 2020

बादल





इधर उधर से आए बादल
आसमान में छाए बादल
आसमां हुआ स्याह
घन घोर घटाएं छाई  है | 
जब बदरा हुए इकट्ठे
 गरजे तरजे टकराए आपस में 
टकराने से हुआ  शोर जबरदस्त 
विद्द्युत कौंधी  रौशनी फैली गगन में |
मोर ने पंख फैलाए किया नृत्य     
मोरनी को रिझाने को
दादुर मोर पपीहा बोले
कोयल ने तान सुनाई है
वर्षा की  ऋतु आई है |
जैसे ही जमाबड़ा हुआ बादलों का 
मोटी बड़ी बूँदें टपकीं 
धरती तर बतर हुई
सध्यस्नाना युवती सी खिल गई |
आसमान से टपकी जल की बूँदें
 वृक्षों से टपकी पत्तों में अटकीं
फिर झरझर झरी  ऐसी जैसे 
 धरा की काकुल से उलझ कर आई हैं |
आशा



09 अगस्त, 2020

कैसे निजात पाऊँ


मन भाता कोई नहीं है
 नहीं किसी से प्रीत  
है दुनिया की रीत यही
 हुई बात जब  धन की |
सर्वोपरी जाना इसे
 जब देखा भाला इसे
भूले से गला यदि फंसा
 बचा नहीं पाया उसे |
हुआ  दूभर जीना  भी
 न्योता न आया यम का
बड़ी बेचैनी हुई जब
 जीवन की बेल परवान न चढ़ी |
अधर में लटकी डोर पतंग की
 पेड़ की डाली में अटकी
जब भी झटका दिया
 आगे न बढ़ पाई फटने लगी |  
दुनिया में जीना हुआ मुहाल
 अब और कहाँ जाऊं
कहाँ अपना आशियाना बनाऊँ
 जिसमें खुशी से रह पाऊँ |
मन का बोझ बढ़ता ही जाता
 तनिक भी कम न होता
कैसे इससे निजात पाऊँ 
दिल को हल्का कर पाऊँ |
आशा