मन भाता कोई नहीं है
नहीं किसी से प्रीत
है दुनिया की रीत यही
हुई बात जब धन की |
सर्वोपरी जाना इसे
जब देखा भाला इसे
भूले से गला यदि फंसा
बचा नहीं पाया उसे |
हुआ दूभर जीना भी
न्योता न आया यम का
बड़ी बेचैनी हुई जब
जीवन की बेल परवान न चढ़ी |
अधर में लटकी डोर पतंग की
पेड़
की डाली में अटकी
जब भी झटका दिया
आगे
न बढ़ पाई फटने लगी |
दुनिया में जीना हुआ मुहाल
अब और कहाँ जाऊं
कहाँ अपना आशियाना बनाऊँ
जिसमें खुशी से रह पाऊँ |
मन का बोझ बढ़ता ही जाता
तनिक भी कम न होता
कैसे इससे निजात पाऊँ
दिल को हल्का कर पाऊँ |
आशा
निराशा का भाव ली हुई कविता
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 09 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (10 अगस्त 2020) को 'रेत की आँधी' (चर्चा अंक 3789) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
आभार रविन्द्र जी सूचना के लिए |
हटाएंबहुत ही सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंवाह!!!
धन्यवाद सुधा जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंसुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद dwanजी टिप्पणी के लिए |
हटाएंलिख कर व्यक्त कर देना भी अच्छा उपाय है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद प्रतिभा जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंमन की कशमकश का बहुत सुन्दर चित्रण ! जीवन सार्थक रूप से जीना भी वास्तव में एक कला है ! बहुत बढ़िया रचना !
जवाब देंहटाएंब और कहाँ जाऊं
जवाब देंहटाएंकहाँ अपना आशियाना बनाऊँ
जिसमें खुशी से रह पाऊँ |
मन का बोझ बढ़ता ही जाता
तनिक भी कम न होता
कैसे इससे निजात पाऊँ
दिल को हल्का कर पा,,,,,, बहुत भावपूर्ण और सुंदर रचना,।