07 अक्टूबर, 2016
06 अक्टूबर, 2016
समय रेत सा
काल चक्र
चलता जाता
कभी न थकता
कभी न रुकता
हाथों से दूर
होता जाता
उसे पकड़
कर रखना
असंभव सा
प्रतीत होता
वह लगता
उस रेत सा
जिसे कैद किया
मुठ्ठी में
सोचा अब
कहाँ जाएगी
पर वह
टिक नहीं पाई
धीरे धीरे
खिरने लगी
मुठ्ठी खाली हो गई
भ्रम मन में ना रहा
समय को पकड़ना
नहीं सरल
वह तो रेत सा
फिसलता है
टिका नहीं रहता |
आशा
05 अक्टूबर, 2016
बरसात के मौसम में
बहता जल
छोटा सा पुल उस पर
छाई हरियाली
चहु ओर
पुष्प खिले बहुरंगे
मन को रिझाएँ
उसे बांधना चाहें
लकड़ी का पुल
जोड़ता स्रोत के
दोनो किनारों को
हरीतिमा जोड़ती
मन से मन को
आसमा में स्याह बादल
हुआ शाम का धुंधलका
समा सूर्यास्त होने का
ऐसे प्यारे मौसम में
मन लिखने का होय |
आशा
03 अक्टूबर, 2016
वह मां है तेरी
वह है माँ तेरी
हर समय फ़िक्र तेरी करती
छोटी बड़ी बातें तेरी
उसके मन में घर करतीं
वह जानती तेरी इच्छा
पूरी जब तक नहीं होती
बेफ़िक्र नहीं हो पाती
सुबह से शाम तक
वह बेचैन ही बनी रहती
उसकी ममता तू क्या जाने
जब तक न हो एहसास तुझे
मां का मन कैसा होता
जब तू हंसती है
निहाल वह तुझ पर होती
तेरे अश्रु देख
मन उसका दुखी होता
तू नहीं जानती
मन मॉम के जैसा होता
तभी पिघलने लगता है
आठ आठ आंसू रोता है
जब कष्ट में तू होती है |
आशा
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