11 जून, 2022

है बंधन प्रगाढ़ दौनों का



तुम किसी को पत्र लिखो  न लिखो 

किसी को क्या फर्क पड़ता है 

 पर मुझे बहुत फर्क  पड़ता है 

क्यों कि तुम्हारे लिखे हुए  पत्र के

 हर शब्द में दिखाई देता है प्रतिरूप मेरा |

जब तुम कभी लिखना  भूल जाते हो

 या अधिक व्यस्त रहते हो और पत्र नहीं लिखते 

मैं बहुत उदास हो जाती हूँ |

मन में भय उपजने लगता है 

कहीं कुछ कमीं तो नहीं रही मुझमें 

जो तुम्हें मेरी याद न आई 

पर मिलने पर कारण बताया जब 

मन बहुत लज्जित हुआ |

फिर मन में प्रश्नों का अम्बार लगा 

क्या इतना भी आत्म बल नहीं रहा मुझमें 

विश्वास खुद पर कैसे न रहा ? 

या कोई कमीं पैदा हुई है मेरे आकर्षण में 

अभी तक सोच में डूबी हूँ 

पर कारण तक खोज न पाई |

यदि मेरा मनोबल मेरा साथ न देता 

इतने दिनों का साथ 

कैसे छूटने के कगार पर होता 

हमारा  मनोबल है सच्चा साथी हम दोनों का 

जो एक  साथ बांधे  है हमें कच्ची डोर से |

दिखने में तो बहुत कमजोर दिखती ग्रंथि 

पर बंधन बड़ा प्रगाढ़ है दौनों में |

आशा 



09 जून, 2022

संतप्त मन की व्यथा


 

किस्से तोता मैना के

कितनी बार सुने 

 उनसे प्रभावित भी हुए 

पर अधिक बंध न पाए उनमें

उनमें सच की कमी रही 

केवल सतही रंग दिखे वहां |

मन ने बहुत ध्यान दिया 

सोचा विचारा उन कथाओं के अन्दर 

छिपे गूढ़ अर्थों पर 

पर संतुष्टि न मिल पाई उसे |

मन की भूख समाप्त न हो पाई 

कैसे उसे खुश रखूँ सोच में हूँ |

कई और रचनाएं खाखोली 

मन जिन में लगा 

वही किताबें पसंद आईं |

मन को संतुष्टि का चस्का लगा 

 अब वह भी खुश और 

मैं भी प्रसन्न होने लगी |

जल्दी ही मन उचटा 

कुछ नया पढ़ने का मन हुआ 

रोज नई किताबें कहाँ मिलतीं

तभी पुस्तकालय का ख्याल आया |

अब मैं और किताबें रहीं आसपास

मन को चैन आया 

और  मुझे आनंद मिला 

यही क्या कम था 

 मैं कुछ तो सुकून

उसे दे पाई  |

आशा  

   


 

06 जून, 2022

मुक्तावली

 

शब्दों को चुन कर 

 सहेजा एकत्र किया

प्रेम के धागे में पिरो कर 

 माला बनाई प्यार से 

सौरभ से स्निग्ध किया

खुशबू फैली सारे परिसर में |

 धोया साहित्यिक विधा के जल से 

  

अलंकारों से सजाया

मन से अद्भुद श्रृंगार किया

फिर तुम्हें  पहनाया 

उसे दिल से |

एक अद्भुद एहसास जागा मन में

हुई मगन तुममें

 दीन दुनिया भूली

क्या तुम ने अनुभव

 न किया यह दीवानापन

या जान कर भी अनजान रहे |

यह तो किसी प्रकार का न्याय नहीं

ना ही थी ऎसी अपेक्षा तुमसे

मन को दारुण दुःख हुआ

क्या कोई कमी रही 

मेरे प्रयत्नों में|

यदि थोड़ा सा इशारा  किया होता

मुझे यह अवमानना

 न सहनी पड़ती

मेरी भावनाएं 

 तुम्हारे कदमों में होती|

मुक्तावली की शोभा

 होती तुम्हारे कंठ में |

तुम हो आराध्य मेरे 

यही है पर्याप्त मेरे लिए  

कभी न कभी तो मेरी

 फरियाद सुनोगे |

मुझे किसी से नहीं बांटना तुम्हें

तुम मेरे हो मेरे ही रहोगे |