07 अक्टूबर, 2010

प्रतिमा सौंदर्य की

प्रातः से संध्या तक ,
वह तोड़ती पत्थर ,
भरी धुप मै भी नहीं रुकती ,
गति उसके हाथों की ,
श्रम कणों की अपूर्व आभा ,
दिखती मुख मंडल पर ,
फटे कपड़ों में लिपटी लाज की गठरी सी ,
लगती है किसी शिल्पी की अनोखी कृति सी ,
महनत से बना सुडौल तन
छन छन कर झांकता अल्हड़ यौवन,
सावला सलोना रंग ,
है वह अनजान अपने रूप से ,
वह भोलापन और आकर्षण ,
ओर सुराही सी गर्दन ,
जो सजी है ,कच्चे कांच के
मनकों की माला से ,
वह जैसे ही झुकती है तगारी उठाने के लिए ,
भंगिमा उसकी लगती प्रस्तर प्रतिमा सी ,
लगता है वह,
इतना वजन कैसे उठा पाएगी ,
तगारी रख सिर पर सरलता से ले जाती है ,
उसका मुखर होना हंसना ओर गुनगुनाना ,
विस्मृत कर देता है ,
फटे कपड़ों में छिपे तन को ,
लगने लगती है ,
स्वर्ग की किसी अप्सरा सी ,
आकृष्ट करती अपनी सुंदरता से ,
जो देन है प्रकृति नटी की ,
चाहता उसे अपलक निहारना ,
अप्रतिम सौन्दैर्यकी मिसाल समझ ,
उसके सम्मोहन में खो जाना ,
सरलता सहजता और भोलापन ,
भराहुआ है कूट कूट कर ,
मजदूरी मिलते ही चेहरे पर भाव,
संतुष्टि का आता है ,
सारी थकान भूल चल देती है डेरे पर ,
पुनः सुबह होते ही काम पर आ जाती है ,
महनत का दर्प चेहरे पर लिए ,
नया उत्साह मन में लिए |
आशा

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया लिखा है .....
    सच में .......आभार ...

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  2. आपकी रचना ने निराला जी की शैली की यद ताजा करा दी!
    --
    बहुत ही गहन विचारों से ओत-प्रोत रचना है आपकी!

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  3. बहुत सुन्दर ..परिश्रम के महत्त्व को बाते अच्छी रचना

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  4. श्रमकार, ये वे मामूली लोग हैं जिन्‍हें सत्ता और तंत्र के नियंताओं ने अपनी नीति से बाहर निकाल फेंका है। इस लोकतंत्र में इनकी अहमियत सिर्फ एक वोट की रह गई है। इस लोकतंत्र में इस लोक को ध्‍यान में रखकर, उनकी जिंदगी उनकी समस्‍या को ध्‍यान में रखकर कोई विधिविधान नहीं बनाया जाता। बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    मध्यकालीन भारत-धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२), राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

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  5. बहुत सुन्दर कविता है ! निराला की 'भिखारिणी' याद आ गयी !
    बहुत सजीव चित्रण है बधाई एवं शुभकामनाएं !

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  6. शब्द, शिल्प और भाव की दृष्टि से एक सम्पूर्ण कविता...नवरात्रि की शुभकामनाएं

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