पिंजरे से बाहर झांकता
बारम्बार किसी को पुकारता
उड़ने को बेकरार लगा |
पर कोई ध्यान नहीं देता
यही सोच कर रह जाता
शायद आदत है उसकी ऐसी
हर बात बार बार रटने की |
कई बार पिंजरा खुला
बाहर भी निकला पर
मन न हुआ स्वतंत्र होने का
मन न हुआ स्वतंत्र होने का
खुले आकाश मैं उड़ने का |
मनोबल उसका कहीं खो गया
या पिंजरे से मोह हो गया
अंतिम क्षण तक वहीं रहा
नई राह न खोजी उसने |
क्या कारण था इसके पीछे ?
समझ न पाया कोई उसे
बंधन न था समर्पण था
प्यार भरा निवेदन था
कुछ वादे
उसे निभाने थे
जो उसके साथ न जाने थे |
बहुत प्यारी रचना ! अति सुन्दर !
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना,,उम्दा भाव..
जवाब देंहटाएंबंधन न था समर्पण था
जवाब देंहटाएंप्यार भरा निवेदन था
कुछ वादे उसे निभाने थे
जो उसके साथ न जाने थे |
अद्भुत भाव... गहन अभिव्यक्ति... आभार आशाजी
http://www.parikalpnaa.com/2012/12/blog-post_5096.html
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारी रचना !
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