14 दिसंबर, 2012

परिंदा

बेबस  सा परकटा परिंदा
पिंजरे से बाहर झांकता
बारम्बार किसी को पुकारता
उड़ने को बेकरार लगा |
पर कोई ध्यान नहीं देता
यही सोच कर रह जाता
शायद आदत है  उसकी ऐसी
हर बात बार बार रटने की |
कई बार पिंजरा खुला
बाहर भी निकला पर
मन न हुआ स्वतंत्र होने का
खुले आकाश मैं उड़ने का |
मनोबल उसका कहीं खो गया
या पिंजरे से मोह हो गया
अंतिम क्षण तक वहीं रहा
नई राह न खोजी उसने |
क्या कारण था इसके पीछे ?
समझ न पाया कोई उसे
बंधन न था समर्पण था
प्यार भरा निवेदन था
कुछ वादे  उसे निभाने थे
जो उसके साथ न जाने थे |


5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत प्यारी रचना ! अति सुन्दर !

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  2. बंधन न था समर्पण था
    प्यार भरा निवेदन था
    कुछ वादे उसे निभाने थे
    जो उसके साथ न जाने थे |
    अद्भुत भाव... गहन अभिव्यक्ति... आभार आशाजी

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