11 दिसंबर, 2012

सह न पाई

देख बदहाली उसकी ,मन को लागी  ठेस |
प्यारा था पहले कितना ,लोक लुभावन वेश ||

साथ समय के बदल गया ,रूप रंग वह तेज |
शरीर ढांचा रह गया ,चेहरा हुआ निस्तेज ||

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सह रही झूमाझटकी ,व अपशब्दों के वार |
कटुता मन में विष भरे ,कोई नहीं उदार ||

नाते रिश्ते भूल चली ,मूढ़ मती सी होय  |
भूल गयी अपनी क्षमता ,रही अपाहिज होय ||

चुटकी भर सिन्दूर का ,मर्म न जाने कोय |
चिंता से तन मन जला बचा न पाया कोय ||

आसमान तक धुआ उठा ,रोक न पाया कोय |
ऊंची लपटें आग की ,देखत ही भय होय ||

भीड़ जो पहले उमढ़ी,कमतर होती जाए |
कौन पड़े चक्कर में ,निश्प्रह होती जाए ||

सास ससुर देवर बढ़े  ,चढे पुलिस की बेन |
फूट फूट कर रो रहे बच्चे बड़े बेचैन  ||

हुआ भयंकर हादसा ,कर जाता बेचैन |
अमानवीयता इतनी  ,क्या समाज की देन ||

आशा 
                                                            





9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (12-12-12) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
    सूचनार्थ |

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  2. भयावह स्थितियों का चित्रण करती व समाज में व्याप्त कड़वी सच्चाई को बयान करती सशक्त रचना ! बहुत खूब !

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  3. बहुत अच्छा आशा जी ,आभार
    मेरी नई पोस्ट "गजल "

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