कुछ कहा नहीं कुछ सूना नहीं
फिर बहस बाजी किस लिए
जिस बात से सारोकार
नहीं
फिर बहस उसी पर
क्यूँ |
मन दुखी हो जाता है
यह प्रवृत्ति देख कर
जिस रास्ते जाना नहीं
उस ओर रुख क्यूँ ?
कोई सही निष्कर्ष
नहीं निकल पाता
उलझनें बढ़ती जातीं
कभी दूर नहीं होतीं
उन की संख्या बढ़ती भी
है
पर एक सीमा तक |
फिर भी मन में
कुछ बेचैनी शेष रह
जाती है
पर मन जरूर हल्का हो जाता है |
उसका पता पूंछने से लाभ
क्या
मन को चोटिल कर् जाती वह बात
जानने
के बाद जिस पर अनावश्यक बहस हो
दूध का दूध पानी का पानी न हो |
आशा
जी बिल्कुल अनावश्यक बहस से मन दुखी होता है। और आपने सही कहा कि मन और दुखी हो जाता है जब अंत में पता चलता है कि उस बहस का कोई निष्कर्ष नहीं निकला।
जवाब देंहटाएंजीवन के कुछ क्रियाकलापों पर पुनः विचार करने के लिए प्रेरित करती यह रचना।
व्यर्थ की बहस की निरर्थकता को उजागर करती प्रेरक रचना ! बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद आपका
हटाएंसुन्दर विचार
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपकाटिप्पणी के लिए
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