18 अक्टूबर, 2014

पागल प्रेमी


पागल  प्रेमी धूम रहा
अतृप्त प्यास अपनी लिए
धूल में मिलना चाहता
हार मान खुद की प्रिये |
नहीं जानता विधि कोई
अपने को व्यक्त करने की
अंतस में उफान है
उसी में लिप्त हुआ है |
पाकर खुद को  असहाय
 है विचलित विमोहित
कल्पनाएं भूल गया है
उसे खोजने में |
ऐसा सोचा न था 
प्रेम पंथ है  कांटो भरा  
सच्चाई है इतनी कुरूप 
अब वह जान गया है |
सारा तिलस्म   भंग हो गया
है उदास खुद में सिमटा
तभी पलायन का विचार
मन में आ गया है |
नत मस्तक बैठा सहलाता 
अपने चोटिल पैरों को 
अश्रु जल से धोना चाहता 
हृदय के हरे जख्मों को |
पागल मन तब भी अस्थिर है 
चैन नहीं लेने देता 
कष्ट जो सहे हैं 
हर बार कुरेद देता |



आशा  



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