पागल प्रेमी धूम रहा
अतृप्त प्यास अपनी लिए
धूल में मिलना चाहता
हार मान खुद की प्रिये |
नहीं जानता विधि कोई
अपने को व्यक्त करने की
अंतस में उफान है
उसी में लिप्त हुआ है |
पाकर खुद को असहाय
है विचलित विमोहित
कल्पनाएं भूल गया है
उसे खोजने में |
उसे खोजने में |
ऐसा सोचा न था
प्रेम पंथ है कांटो भरा
सच्चाई है इतनी कुरूप
अब वह जान गया है |
सारा तिलस्म भंग हो गया
है उदास खुद में सिमटा
तभी पलायन का विचार
मन में आ गया है |
नत मस्तक बैठा सहलाता
अपने चोटिल पैरों को
अश्रु जल से धोना चाहता
हृदय के हरे जख्मों को |
पागल मन तब भी अस्थिर है
चैन नहीं लेने देता
कष्ट जो सहे हैं
हर बार कुरेद देता |
नत मस्तक बैठा सहलाता
अपने चोटिल पैरों को
अश्रु जल से धोना चाहता
हृदय के हरे जख्मों को |
पागल मन तब भी अस्थिर है
चैन नहीं लेने देता
कष्ट जो सहे हैं
हर बार कुरेद देता |
आशा
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