14 अक्टूबर, 2014

भूचाल



सूखी स्याही कलम की
लिखावट तक स्पष्ट नहीं
धूमिल हुई
 आंसुओं की वर्षा से
समीप ऐसा  कोई नहीं   
जो हाथ बढाए उसे रोक पाए
दिमागी अंधड़ से बचा पाए
सब मेरे ही साथ क्यूं ?
क्या कोई और नहीं मिलता
ऐसे भूचालों को
ना स्वयं जीना चाहते
ना ही किसी को जीने देते
यदि कभी हंसी आजाए
खिलखिलाहट घर में गूंजे
बड़ा बबाल मच जाए
खुद अट्टाहस करते
दूसरे का चैन छीन
कितना सुकून मिलता होगा  
 केवल वही जानते
मेरे एहसास मेरे साथ
इस तरह चिपके हैं
पीछा नहीं छोड़ते 
खुश रहने नहीं देते
बेचैन किये रहते
काश मुक्ति मिल पाती
ऐसे भूचालों से
दिमाग कभी खाली हो पाता
व्यर्थ के एहसासों से |
आशा  

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