24 फ़रवरी, 2010

उपेक्षिता

सजे सजाये कमरे में
मैंने उसे उदास देखा
आग्रह से यह पूछ लिया
उसका ह्रदय टटोल लिया
तुम क्यों सहमी सी रहती हो
आखिर ऐसा हुआ क्या है
जो नित्य प्रतारणा सहती हो |
पहले तो वह टाल गयी
फिर जब अपनापन पाया
हिचकी भर-भर कर रोई
मन जब थोड़ा शांत हुआ
अश्रु धार से मुँह धोया
तब उसने अपना मुँह खोला |
सजी धजी इक गुड़िया सी
मैं सब के हाथों में घूम रही
सब चुपचाप सहा मैने
अपने भाव न जता पाई
पर उपेक्षा सह न सकी
बहुत खीज मन में आई
मेरी अपेक्षा मरने लगी
दुःख के कगार तक ले आई |
व्यथा कथा उसकी सुन कर
मन में टीस उभर आई
मैं उसको कुछ न सुझा पाई
मन ही मन आहत हो कर
थके पाँव घर को आई |
ऐसा क्या था जो भेद गया
दिल दौलत दुनिया से मुझको
बहत दूर खींच लाया मुझको
मन ही मन कुरेद गया |
उसमें मैंने खुद को देखा
जीवन के पन्ने खुलने लगे
बीता कल मुझको चुभने लगा
मकड़ी का जाला बुनने लगा
फँस कर मैं उस मकड़ जाल में
अपने को भी न सम्हाल सकी
जो बात कहीं थी अन्तरमें
होंठों तक आ कर रुकने लगी |
मैं भी तो उसके जैसी ही हूँ
कभी गलत और कभी सही
अनेक वर्जनाएं सहती हूँ
फिर किस हक से मैंने
उसका मन छूना चाहा
मन ही मन दुखी हुई अब मैं
क्यूँ मैने छेड़ दिया उसको
उसकी पीड़ा तो की न कम मैंने
अपनी पीड़ा बढ़ा बैठी |

आशा

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर ! मानवीय सम्वेदनाओं की बहुत अच्छी अभिव्यक्ति है ! कई बार दूसरों के दुख में अपने दुख का पतिबिम्ब दिखाई दे जाता है और दूसरों की समस्या में अपनी समस्याओं के समाधान मिल जाते हैं ! बहुत सुन्दर पोस्ट ! आभार !

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  2. खूबसूरत अंदाज में बेहतरीन रचना.

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  3. Its difficult for me to read hindi..bt i can manage,bt poetry must be awesome.....


    jolliieesss:)

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  4. सुंदर ढंग से दर्द को अभिव्यक्त किया है आपने.

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