17 अक्टूबर, 2010

हुई सुबह सूरज निकला

हुई सुबह सूरज निकला ,
हुआ रथ पर सबार ,
धीमी गति से आगे बढ़ा ,
दोपहर में कुछ स्फूर्ति आई ,
फिर अस्ताचल को चला ,
और शाम होगई ,
मन की बेचैनी और बढ़ गई ,
एकाकी सदासे रहता आया ,
ना कोई संगी नाकोई साथी ,
सूना घर सूना चौराहा ,
था बस तेरा इन्तजार ,
पर तू भी ना आया ,
सुबह से शाम यूंही होगी ,
बिना बात की सजा होगई ,
राह देख थक गई आँखें ,
मन पत्थर सा होने लगा ,
पर आशा की एक किरण ,
कहीं छिपी मन के अंदर ,
उसकी एक झलक नजर आई ,
जब दस्तक दी दरवाजे पर ,
होने लगा स्पंदित मन ,
देख तुझे अरमान जगे ,
मन को कुछ सुकून मिला ,
पत्थर पिघला मोम हुआ ,
सारी बेचैनी सारा गुस्सा ,
जाने कहां गुम हो गया ,
मेरी बगिया गुलजार कर गया |
आशा







,

7 टिप्‍पणियां:

  1. जी हाँ -एक पल मन को बदल देता है -
    सुंदर रचना

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  2. आपका नाम आशा है और आपकी रचनाएँ सर्वदा आशा जगाती हैं
    बहुत सुन्दर

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  3. सकारत्मक सोच को बढावा देती प्रस्तुति।

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  4. सुन्दर रचना ! मन में उत्साह जगाती एक सकारात्मक प्रस्तुति ! बधाई एवं शुभकामनाएं !

    जवाब देंहटाएं

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